सम्पादकीयसाहित्य जगत

ज्ञान सिखाता जीने की कला

एक समझ जो बताती है कि भिन्न परिस्थितियों में क्या करने योग्य है, और क्या नहीं? सांप्रदायिकता, भेदभाव, हिंसा, जातिवाद जैसी चुनौतियों की तीव्रता को न्यून करती है। तथा बेहतर माध्यम होती है, जीवन में शांति एवं समाज में सौहार्द का; जो सम्भव है सापेक्षिक ज्ञान से।

यह सच है कि जीवन उथल-पुथल भरा हुआ है। कभी ख़ुशी-कभी ग़म। जबकि यह सर्वविदित है कि ख़ुशी भी हो जाएगी कम और टल जाएगा ग़म। हर परिस्थिति में खुद को कैसे सम्भाला जाए? या तमाम उलझनों से खुद को कैसे बाहर निकाला जाए? कैसे सटीक निर्णयों से जीवन को संवारा जाए? इन प्रश्नों के सही हल जीवन को आसान कर सकते है।

सुकरात के विचारों में ज्ञान ही एक मात्र सद्गुण है। जिसका अर्थ है कि व्यक्ति सीख सके कि जीवन की अनेक परिस्थितियों में क्या करने योग्य है क्या नहीं? ज्ञान की चमक व्यक्ति के जीवन में दिखनी चाहिए। ज्ञान के विकास के कई माध्यमों में से एक शिक्षण संस्थान हैं।लेकिन ज़रूरी नहीं शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ज्ञानी ही हो या अशिक्षित अज्ञानी। शिक्षण संस्थानों में सीखा ज्ञान यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व में नहीं उतरता है। तो यह सिर्फ़ अंक प्रमाण पत्र की शोभा बढ़ाने तक ही सीमित होगा। व्यक्ति दो तरह से सीखता है; पहला, खुद के अनुभवों या प्रयोगों से तथा दूसरा, अन्य व्यक्तियों से। खुद के अनुभवों की सीख बेहतर होती है लेकिन समस्या यह है कि जीवन छोटा है यदि सारे प्रयोग खुद के जीवन में करने लग जाएँगे तो मिले एक जीवन में बहुत बड़ा कर पाना जोखिम भरा है। जैसे पत्थरों से चिंगारी निकालते हुए लाइटर के युग तक पहुँचना एक जीवन में तो सम्भव नहीं है। बेहतर होगा कि आग की विरासत समझें और उसे लाइटर से आगे लेकर जाएँ। यानी हमें दूसरों के जीवन से भी बहुत कुछ सीखना चाहिए। ख़ासकर जिन्होंने अपना पूरा जीवन किसी एक विशेष विचार को सिद्ध करने में लगा दिया हो। सीखने की यह कला जीवन की सफलताओं को कई गुना बढ़ा सकती है। एक छोटे से जीवन में हज़ारों वर्षों का अनुभव करा सकती है।

जीवन की अनेक उलझनो को भारतीय दर्शन में झांककर सुलझाया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने चार आर्यसत्यों के माध्यम से दुखों का इलाज सुझाया है। कहते हैं एक समय बाद सब कुछ हाथ से निकलना तय है; वो फिर सुख हो या दुःख। बुद्ध के दुखों की समाप्ति के अष्टांगिक मार्ग में एक है दृष्टि यानी समझ। जो कि विकसित होती है ज्ञान से। मध्यम मार्गी बुद्ध कहते है- संयम पूर्वक उपभोग करो; यानी न ही भोगवादी होना अच्छा है और न ही वैराग्यवादी। भोगवादी व्यक्ति में इच्छाएँ एवं लालसाएँ हावी रहती है।इसकी प्राप्ति के लिए संसाधन चाहिए होते हैं। और वे सभी के पास होते नहीं। जिसकी पूर्ति व्यक्ति को किसी भी हद तक ले जाती है। इसलिए चोरी, डकैती, हिंसा जैसे अपराध बढ़ते हैं। ऐसे व्यक्ति की स्थिति गुड़ में चिपके चींटे के समान हो जाती है। जोकि हटाने पर टुकड़े-टुकड़े होकर बाहर निकलता है। इसके विपरीत वैराग्यवादी होना जीवन की सहजता को सीमित कर देता है। इसके बीच के संतुलन को ज्ञान से साधा जा सकता है। इसी प्रकार अरस्तू अपने स्वर्णिम माध्य के सिद्धांत में कायरता एवं क्रूरता के मध्य का मार्ग साहस बताते है। यानी व्यक्ति को इतना भी निष्क्रिय नहीं होना है कि अपने कर्तव्यों से पीछे हटे और न ही इतना उत्साही होना है कि उसकी परिणति क्रूरता में हो। तथा दूसरों के जीवन को जोखिम में डाल दे। जीवन में संतुलन की स्थिति वह है जब साहस उसके कर्तव्यों एवं कर्मों को करने का उत्साह पैदा करे। अपने कर्तव्यों के निर्वाहन से व्यक्ति स्वयं के जीवन में शांति एवं समाज में सौहार्द लाए। एरिकफ़्राम अपनी पुस्तक द आर्ट ऑफ़ लविंग में कहते हैं- जीवन का सबसे बड़ा सुख दूसरों की मदद करने में है, तथा दूसरों को ख़ुशी देने में है। जो कि हम भूल जाते हैं।

जब हम भूल जाते हैं दूसरों की स्वतंत्रताओं को, इच्छाओं को। हम भूल जाते हैं समानताओं को, आपसी बंधुत्व को। जब हम नहीं महसूस करते दूसरों के दर्द को, प्रेम को। नहीं महसूस करते दूसरों की भावनाओं को, अन्याय को। जोकि स्वाभाविक तौर पर जीवन में और समाज में उथल-पुथल लाती हैं। हमें स्वयं एवं दूसरों को समझना होगा, अपने और ग़ैरों में अंतर को कम करना होगा जोकि मध्यम मार्ग एवं सापेक्षिक ज्ञान से सम्भव है।

जब हम अपनी राय, मत, विचारों आदि को श्रेष्ठ तो मानते हैं लेकिन निरपेक्ष अर्थ में नहीं। बल्कि सापेक्षिक रूप से उतना ही सम्मान करते हैं अन्य के विचारों एवं मतों का। ये छोटी सी समझ अनेक बड़ी समस्याओं को हल कर सकती है। मानवीय अस्तित्व, जीवन शांति एवं सामाजिक सौहार्द के लिए पल भर का चिंतन भी पर्याप्त हो सकता है।

         मोहम्मद ज़ुबैर

Print Friendly, PDF & Email
AMAN YATRA
Author: AMAN YATRA

SABSE PAHLE

Related Articles

AD
Back to top button