कविता
दिया और बाती
एक बार की बात है, सुनो रे मेरे साथी.. एक छोटी सी बात पर लड़ गए "दिया और बाती"। दीया बोला बाती से नहीं तेरा कोई मोल, मेरे बिन तू कुछ भी नहीं, मैं तो हूं अनमोल।
एक बार की बात है, सुनो रे मेरे साथी..
एक छोटी सी बात पर लड़ गए “दिया और बाती”।
दीया बोला बाती से नहीं तेरा कोई मोल
मेरे बिन तू कुछ भी नहीं, मैं तो हूं अनमोल।
बाती बोली —
सुन ओ दीये…..
माना तुम अनमोल हो नहीं मेरा कोई मोल,
लेकिन मेरे बिन तुम भी हो बेमोल,
मैं खुद को जला जला कर करती हूं प्रकाश,
मेरी ही कुर्बानी से हो तुम इतने खास।
मैंने खुद को जला जला कर तेरी मर्यादा को बढ़ाया है,
लेकिन फिर भी तूने मेरी कुर्बानी को ना जाना है।
तुमने मुझ को अपमानित कर,अपना सम्मान गिराया है।
मैं तो तेरा ही एक अंश हूं, मैं हूं तेरी परछाईं।
तू मुझसे कभी दूर नहीं, ना मैं तुझसे पराई।
तो फिर तुम किस बात पर करते हो लड़ाई।
मैं तेरे बिन कुछ भी नहीं, ना तुम कुछ हो हमराही।
एक ही नैया एक ही है खेवईया,
एक ही जीवन की धारा है।साथ है तो जीवन है जगमग,
दूर हुए तो अँधियारा है।
एक दूजे के बिन ओ-प्यारे!
क्या ही अस्तित्व हमारा है।
अर्पित कुशवाहा , कानपुर देहात