कविता

‘बुढ़ापा’

मां जब जब भी दर्द से कराहती है अजीब सी बेचैनियां मुझे घेरती, नकारती हैं

मां जब जब भी दर्द से कराहती है

अजीब सी बेचैनियां मुझे घेरती, नकारती हैं

असहाय सी हो जाती हूं मैं भी

मां की आवाज जब पुकारती है


बढ गया है शीत में मां के घुटनों का दर्द

रातें हो गई हैं बेहद सर्द

मां-बाबा की बेचैनी धिक्कारती है

नहीं रुकती मां की खांसी

जैसे खांसती हो बूढी काकी

अपने ही घर में मां किसे पुकारती है


हर पल विदेश में बसे बेटे का रास्ता निहारती है

मां की ऑंखों का पक गया है मोतियाबिन्द

न जाने कबसे रेशम की कढाई करना कर दिया है बन्द

सूनी दृष्टि से हर पल ऑंगन बुहारती है

अपने ही घर में मां किसको पुकारती है


खांस खांसकर मां हो जाती है बेदम

बाबा के रुक जाते हैं बाहर जाते कदम

असहाय बने दोनों लेकिन ममता पुकारती है


बीते दिनों की यादें उनको पुचकारती हैं

आपसी संवाद के सहारे दोनों हैं जिन्दा

बेटे की उपेक्षा से स्वयं हैं शर्मिन्दा

अजनबियों के आगमन से होते हैं खुश

पडोसियों से छिपाते हैं अपनों के दुःख

जमीन अपने गांव की छोडी नहीं जाती

विदेश में बसने की बात झेली नहीं जाती

रह रह कर हर वक्त यही बात उन्हें सालती है


मां जब जब दर्द से कराहती है

अजीब सी बेचैनी मुझे धिक्कारती है।।

 

दिव्या यादव- (साभार: रचनाकार)

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AMAN YATRA
Author: AMAN YATRA

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