सम्पादकीय

कौन जिम्मेदार है बढ़ते साम्प्रदायिक उन्माद के लिए 

अमन यात्रा

बीते दिनों दो नेताओं के विवादित बयान से भड़का साम्प्रदायिक उन्माद थमने का नाम नहीं ले रहा है. 10 जून को जुमे की नमाज के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हुए हिंसक प्रदर्शनों से कानून-व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है. वहीँ दूसरी ओर विभिन्न मुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया ने भी भारत को असहज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. खाड़ी देशों में खुलेआम भारत विरोधी मुहीम चलायी जा रही है. यहाँ तक कि यह मामला संयुक्त राष्ट्र तक जा पहुंचा है. ऐसे में सवाल उठता है कि इस परिस्थिति से आखिर निपटा कैसे जायेगा? क्या भाजपा द्वारा अपने दोनों प्रवक्ताओं के खिलाफ उठाया गया कदम नाकाफी है? क्या यह परिस्थिति अचानक उत्पन्न हुई है? क्या इसके पीछे सिर्फ भाजपा प्रवक्ताओं के बयान ही मूल कारण हैं? या फिर साम्प्रदायिक राजनीति से दो वर्गों के बीच बनती टकराव की पृष्ठभूमि का यह एक ट्रेलर है?
यह बात हर किसी को अच्छी तरह पता है कि संघर्ष किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. हल अन्ततोगत्वा बातचीत से ही निकलता है.लेकिन उन्मादी तो सिर्फ उन्मादी ही होते हैं. वह हर समस्या का समाधान सिर्फ और सिर्फ हिंसक संघर्ष में ही खोजते हैं. आजादी के बाद भारत जब विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप में प्रतिष्ठित हुआ. तब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने विभिन्न जातियों और सम्प्रदायों वाले इस देश को एक देश नहीं बल्कि कई देशों का समूह बताते हुए इसकी विभिन्नता को ही विशेषता के रूप में परिभाषित किया था लेकिन विद्रुप देखिये कि सत्ता लोलुप तथाकथित राष्ट्रभक्तों ने इस विभिन्नता को ही सत्ता प्राप्ति का सबसे सरल और टिकाऊ अस्त्र बना लिया.  जिसकी परिणति साम्प्रदायिक उन्माद के रूप में जब-तब होती रहती है. आजादी के पहले यही काम अंग्रेज करते रहे. जिसका परिणाम बटवारे के रूप में सामने आया.
स्वतन्त्रता के बाद देश के कर्णधारों ने भी सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने के लिए उसी मार्ग का अनुकरण किया, जो आज तक अनवरत रूप से जारी है. जाति और सम्प्रदाय की राजनीति ने नफरत की जो खाई पैदा की, उसे गहरा और चौड़ा करने का काम आज टी.वी.चैनल कर रहे हैं. टीआरपी बढ़ाकर विज्ञापनों से रुपया बटोरने की चाहत में इन चैनलों ने पत्रकारिता की आचार संहिता को पूरी तरह से ताक पर रख दिया है| रही-सही कसर सोशल मीडिया से पूरी हो रही है. सोशल मीडिया का सञ्चालन करने वाली कम्पनियाँ भी अपना रेवेन्यू बनाने के लिए प्रायः विवादित तथा संवेदनशील विषयों को जान बूझकर हाईलाईट करती हैं. इनके सहारे अनगिनत यूट्यूबर भी अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं. सबका पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ अपनी कमाई बढ़ाने पर ही केन्द्रित है.  देश बटे तो बट जाये, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो तो हो जाये, उन्माद के आवेग में लोग एक दूसरे का खून बहा दें तो बहा दे.
लेकिन इन लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला  किसी भी विषय पर यदि बहस आवश्यक है तो स्वस्थ बहस हो. ऐसी बहस हो जो किसी निष्कर्ष पर पहुँचे और उचित समाधान दे. बहस को उन्माद की हद तक पहुँचाकर विवाद का रूप दे देना टीवी चैनलों की एक तरह से फितरत बन चुकी है| बहस में शामिल लोग भी इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर वह सब बोलने लगते हैं जो उन्हें कम से कम सार्वजनिक रूप से तो बिलकुल भी नहीं बोलना चाहिए. कई चैनलों की स्क्रीन पर तो बहस के दौरान ‘टक्कर’, ‘जबरदस्त टक्कर’ और ‘मुकाबला’ जैसे स्लोगन भी लिख-लिख कर आने लगते हैं. जिन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे इनका उद्देश्य सिर्फ विवाद कराना ही हो| यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब बहस में शामिल लोग एक दूसरे के साथ मार-पीट भी करने लगेंगे. काशी का विवाद अब जब कोर्ट में है तब फिर उस पर सार्वजनिक बहस प्रस्तुत करने का औचित्य समझ से परे है. लेकिन टीआरपी और रेवेन्यू बढ़ाने के लिए वर्तमान में यही सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है. जिस पर हुई प्रवक्ताओं की बहस ने ऐसा रूप अख्तियार किया कि कतर, कुवैत और मालदीव जैसे देश भी भारत को आँख दिखाने लगे| ईरान, इराक, ओमान, सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, जार्डन, अफगानिस्तान, बहरीन, लीबिया और इण्डोनेशिया समेत 15 इस्लामिक देश भाजपा नेताओं के बयान पर आधिकारिक रूप से अपना विरोध दर्ज करवा चुके हैं.  इनमें से कई देशों में भारतीय सामान के बहिष्कार की भी मांग उठने लगी है. 57 इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी (ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ दि इस्लामिक कांफ्रेंस) ने भी इस मामले पर नाराजगी व्यक्त की है.  सम्भवता यह पहली बार है जब भारत के अन्दर हुए किसी विवाद पर विदेशी प्रतिक्रिया सामने आयी हो| वह भी इस रूप में उपरोक्त सभी देश पूर्णतया इस्लामिक देश हैं. धर्म निरपेक्षता जैसे शब्दों से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है. ऐसे देश यदि इस्लाम के खिलाफ किसी बयान पर विरोध दर्ज करवाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि यह देश इस्लाम के उन सभी पैरोकारों की बदजुबानी पर सदैव चुप्पी साधे रहते हैं जो अक्सर श्रीराम तथा श्रीकृष्ण सहित भारत के विभिन्न आदर्श पुरुषों एवं देवी-देवताओं के खिलाफ अभद्र टिप्पणियां करते रहते हैं.  मजम्मत तो सभी की होनी चाहिए| माफ़ी मांगने की नसीहत भी सभी को देनी चाहिए| प्रत्येक पन्थ, सम्प्रदाय या धर्म से जुड़े महापुरुष उस धर्म के अनुयाइयों के लिए उतने ही पूज्य होते हैं जितने किसी एक धर्म विशेष के भारत में सभी धर्मों का सम्मान करने की प्राचीन परम्परा है.
वसुधैवकुटुम्बकम् की उक्ति भारत ने ही दी है. ऐसे में यदि कोई भारत को नसीहत देने का प्रयास करे तो इसका सीधा अर्थ है कि वह जिस विचारधारा का पोषक है, उसका दायरा अत्यन्त संकुचित है. किसी भी विचारधारा का संकुचित दायरा ही सहजता से उन्माद को जन्म देने वाला होता है. भारतीय संस्कृति किसी एक महापुरुष की विचारधारा नहीं है, बल्कि अनगिनत महापुरुषों की उन विचारधाराओं का संग्रह है, जो उनके द्वारा व्यावहारिक धरातल पर विभिन्न सामाजिक अनुभवों से आत्मसात की गयी हैं. इसके बाद भी समय-समय पर इन विचारधाराओं को शोधन करके देश, काल और परिस्थिति के अनुसार परिमार्जित एवं परिष्कृत भी किया गया है. अतः जो लोग भारतीय संस्कृति की तुलना किसी सम्प्रदाय या पन्थ से करते हैं, उन्हें इस मामले में अल्प ज्ञानी की ही संज्ञा दी जानी चाहिए.  दुर्भाग्य से ऐसे लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है.  जो न केवल देश की एकता और अखण्डता के लिए घातक हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के दुष्प्रचारक भी हैं.
डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)
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AMAN YATRA
Author: AMAN YATRA

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