कानपुर देहात

मल्टी टास्क वर्कर्स न बनाएं, शिक्षक को शिक्षक ही रहने दें

आजकल के शिक्षक जिन्हें कभी आदर्श और मार्गदर्शक माना जाता था अब बेचारे एक नई भूमिका निभा रहे हैं। पार्ट-टाइम ब्योरोक्रेट और फुलटाइम बोझ ढोने वाले, शिक्षण तो जैसे अब उनका साइड जॉब बन गया है।

राजेश कटियार, कानपुर देहात। आजकल के शिक्षक जिन्हें कभी आदर्श और मार्गदर्शक माना जाता था अब बेचारे एक नई भूमिका निभा रहे हैं। पार्ट-टाइम ब्योरोक्रेट और फुलटाइम बोझ ढोने वाले, शिक्षण तो जैसे अब उनका साइड जॉब बन गया है। अब उनका असली काम तो सरकारी योजनाओं का आंकड़ा संकलन करना और प्रशासनिक मसलों का निपटारा करना है। कॉरपोरेट जगत के काम का दबाव अब क्लासरूम की दीवारों को तोड़कर स्कूलों तक पहुंच गया है। किसी जमाने में कंपनियों के कर्मचारियों पर अधिक उत्पादन का दबाव होता था पर अब शिक्षा विभाग भी वही नीति अपनाने में जुटा है। शिक्षक जो कभी छात्रों के भविष्य निर्माण में व्यस्त रहते थे अब आंकड़ों की दौड़ में ही उलझे रहते हैं।

जब एक शिक्षक अपनी क्लास खत्म करता है तब वह सोचता है कि अब उसे राहत मिलेगी लेकिन नहीं। सोशल मीडिया पर ऑलवेज ऑन की संस्कृति ने जैसे शिक्षकों को हर वक्त काम पर रहो की मानसिकता में धकेल दिया है। ऐसे में बेचारे शिक्षक छुट्टी के दिन भी सोचते हैं कहीं अब कोई रिपोर्ट जमा करनी तो नहीं ? शिक्षक का सामाजिक जीवन हाँ वो भी है पर केवल नियमों और सूचनाओं से भरा हुआ। कभी 9 बजे से से 3 बजे तक की नौकरी का सपना देखने वाले शिक्षक अब सुबह 9 से 9 बजे रात ही नहीं बल्कि कभी भी की जिंदगी जी रहे हैं। दिन में स्कूल रात में रिपोर्ट और फिर व्हाट्सएप पर घंटी जैसे जीवन का नया संगीत बन गया है। हफ्ते भर की थकान के बाद वीकेंड पर आराम करना भी अब शिक्षक के लिए किसी लग्जरी से कम नहीं। सोचिए जब शिक्षकों को हर वक्त रिपोर्ट्स, प्लानिंग और आंकड़े संकलित करने में लगाया जाएगा तो छात्रों के भविष्य का क्या होगा ? असल में आजकल का शिक्षक अपने निजी जीवन को स्कूल के बाहर कहीं भूल सा आया है। जैसे ही छुट्टी की घंटी बजती है उनके दिमाग में कोई न कोई प्रशासनिक टास्क आ धमकता है।

स्कूलों और विभागों में तनाव को लेकर चर्चा करना जैसे गुनाह हो गया है। कोई मंच नहीं है, कोई सहयोग नहीं है और सबसे बड़ी बात कोई समझने वाला नहीं है। ऐसे में शिक्षक किससे कहें कि वे मानसिक थकान से गुजर रहे हैं। तनाव और बर्न आउट की समस्या अब इतनी आम हो गई है कि इसे नॉर्मल समझ लिया गया है। स्कूलों की ये हालत है कि अगर शिक्षक कहे मुझे मदद की जरूरत है तो जवाब मिलता है हमें भी तो जरूरत है। अब भला कहां जाएं शिक्षक। मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर तो जैसे पूरे ताले डाल दिए गए हैं और उस ताले की चाबी कहीं सरकारी योजनाओं के फाइलों में गुम सी हो गई है। अब यह बात स्पष्ट है कि शिक्षकों को राहत देने का समय आ गया है।

सप्ताह में पाँच दिन का कार्य सप्ताह लागू करने का वक्त आ गया है ताकि शिक्षक अपने लिए भी समय निकाल सकें और हां इस वीकेंड में काम मत करो की नीति भी लागू होनी चाहिए वरना रविवार की छुट्टी केवल एक फैंटेसी बन कर रह जाएगी। डिस्कनेक्ट करने का अधिकार क्या शानदार विचार है। शिक्षक काम के बाद काम से जुड़े किसी भी संचार से मुक्ति पा सकें यह भी किसी सपने से कम नहीं होगा। अब वक्त आ गया है कि जिम्मेदार अपनी प्राथमिकताओं को बदलें। शिक्षक केवल काम करने की मशीन नहीं हैं। उन्हें भी अपने जीवन के अन्य पहलुओं का आनंद लेने का हक है। अगर हम चाहते हैं कि शिक्षक अपने छात्रों के लिए सर्वश्रेष्ठ दे सकें तो हमें भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ देना होगा। अगर वास्तव में गरीबों के बच्चों को शिक्षित करना है तो सरकार को अपनी कार्य प्रणाली में बदलाव लाना होगा।

Author: AMAN YATRA

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