सम्पादकीय

शक की नजरों से क्यों देखी जाती है एक अकेली औरत

अकेली औरत : सामाजिक विषमताओं का संघर्ष

यह विषय बड़ा अजीब लग सकता है लेकिन आज समाज मे इस पर बहस होनी अतिआवश्यक है।अकेली औरत होने के पीछे कई कारण होते है। कई बार विचारों के न मिलने से शादी के टूटने के बाद एक औरत अकेली हो जाती है। उसके पति के निधन के बाद औरत अकेली हो जाती है। इन दोनों परिस्थितियों में ही औरत को समाज में अकेले जीवन जीना होता है। अब यहाँ से ही इस बहस का आगाज होता है अकेली औरत मौका या जिम्मेदारी, जिसके विभिन्न पहलुओ पर हम विचार व्यक्त करते हैं। अकेली औरत को अपने हर जरूरी चीज के लिये पुरुष सत्तात्मक सोच के पुरूषों पर निर्भर होना पड़ता है। जैसे कार रखती है तो पंचर के लिये, मोबाइल रखती है तो रिचार्च के लिये, दूध लेती है तो दूधवाले पर, सुरक्षा के लिये किसी पुलिस वाले पर। अब इसमें अधिसंख्य जगहों पर उसका मुकाबला पुरुषों से होता है जो उसके रूप लावण्य की चाशनी में खुद डूबना चाहते है जिसके लिये वो अकेली स्त्री को तरजीह देता है।
स्त्री की मजबूरी होती है क्योंकि उसका छोटा बच्चा उसका इंतजार कर रहा होता है तो वो जानबूझ कर उस लम्पटपन को नजरअंदाज करते हुऐ उस मौके को उस दुकानदार को लेने देती है। कितना असहज होता है जब रात को 10 बजे आप अपने परिवार के साथ जा रहे हो और अचानक आपकी कार पंचर हो जाये और जिस दुकान पर आप पंचर बनवा रहे हो वो आपके घर की किसी महिला को घूर कर देख रहा हो। आप उसको डांटते हुए अपने परिवार को सुरक्षित करने का प्रयास करते है। अब इस स्थित को तब देखिये जब एक अकेली स्त्री अपने बच्चे के साथ कार में जा रही है और कार पंचर हो जाती है तो उस पर क्या बीतती है और इसी डर से वो रात को घर से निकलने से बचती है। उसको क्यों हक नही है कि वो रात 10 बजे अपनी कार से निकल सके।
कभी विचार करियेगा। अब बात करते है उसके व्यवसायिक स्थल की यदि उसके सहकर्मियों को यह जानकारी हो कि फला स्त्री वर्तमान में एकल रूप से रह रही है या उसके पति का साया अब उस पर नही है तो बेहद घटिया स्तर की बातचीत शुरू हो जाती है। यूँ कहें उनको एक मसाला मिल जाता है बतकही के लिये। पितृ सत्तात्मक व्यवसायिक क्षेत्र में एक अकेली स्त्री उसके साथ के सहकर्मियों का लिये एक मौके से कम नही होती जब वो उसके रहन सहन बातचीत स्वभाव को इस तरह जज करने लगते है मानो यह स्त्री एक सामान्य महिला न होकर कोई चरित्रहीन स्त्री है क्योंकि सभ्य पितृसत्तात्मक सोच वाले पुरुष समाज जब किसी स्त्री को स्वयं से आगे बढ़ता देखता है तो उसका ईगो बुरी तरह घायल हो जाता है।
वो उस मछली की तरह छटपटाने लगता है जिसको यदि पानी की कुछ बूंदे मिल जाये तो उसकी जान बच जाये। ऐसे समय मे वो पानी की बूंदे उस स्त्री का चरित्र प्रमाण पत्र होती है। आगे बढ़ रही उस अकेली स्त्री का किसी पुरुष से बात करने भर से उसके कुलटा या चरित्रहीन होने का प्रमाण पत्र जारी कर देता है। यहाँ सबसे मजेदार बात ये है कि इस समय जब स्त्री को स्त्री का साथ देना चाहिये उस समय वह भी पितृसत्तात्मक सोच के समाज के साथ हाँ में हाँ मिलाती नजर आती है।
मैंने अपने बहुत बारीक विश्लेषण में इस तथ्य को पाया है कि अकेली स्त्री की परिस्थितियों में दोषी कोई भी हो पर दोष अकेली स्त्री का ही सिद्ध किया जाता है। मसलन थोड़ा एडजेस्ट कर लेती तो घर बच जाता, आदमी की सुननी पड़ती है, कई जगह मुँह मारने की आदत रही होगी इसलिये पति से नही पटी आदि आदि। कभी कलेजे पर हाँथ रखकर इन सब प्रश्नों का मुँह पितृसत्तात्मक सोच वाले समाज की ओर मोड़ कर देखियेगा। यकीन मानिये वो बौखला उठेंगे।
स्त्री रिमोट से चलने वाली रोबेट नहीं है जो आपके कमांड के अनुसार कार्य करे। उसकी अपनी जीवनचर्या है जिसका सम्मान सभी को करना होगा। इन सबमे सबसे पहले इस जीवनचर्या का अनुपालन स्त्रियों को करना होगा। आज भी अकेली स्त्री कितना भी मजबूत क्यों न हो वो इस आत्मग्लानि से भरी होती है कि उसके आत्मसम्मान की कीमत उसका बेटा या बेटी चुका रहे हैं। यही उसका ममत्व का वह रूप है जहां पितृसत्तात्मक सोच पुनः जिन्दा होती है और वह अपने आत्मसम्मान को मारते हुए उस दलदल में जाने को छटपटाने लगती है जहाँ उसे पता है कि उसे तिल तिल मरना होगा।
यहाँ से हमे एक नई दिशा में प्रयास करना होगा। जहाँ स्त्री के स्वाभिमानी होने का सम्मान किया जाये। उसके चरित्र प्रमाण पत्रों को जारी न किया जाये। इसमें पहल स्त्रियों की तरफ से हो सकती है। स्वाभिमान आपका मान सम्मान आपका अगली पीढ़ी तब तक नहीं करेगी जब तक स्वयं आप इसको छीनेंगी नहीं। जब एक बेटा अपनी माँ को अपने पिता से दबते हुए या उनके सामने झुकते हुए देखेगा तो यकीन मानिये वो भविष्य में अपनी पत्नी के साथ वही दुर्व्यवहार करने की जुर्रत करेगा जो उसके पिता ने उसकी माता के साथ किया था। यह आसान नहीं होता पर करना पड़ेगा।
स्त्री अस्मिता और संघर्ष की बाते सिर्फ कागजी घोड़े बनकर रह जाती हैं। उन पर जमीन में अमल तभी हो सकता है जब वास्तव में जिसको इसकी जरूरत है वो आगे बढ़े। आज हम संविधान और कानून को उठाकर कितना भी पढ़लें वो धरातल पर महज दिखावा ही साबित होते नजर आ रहे हैं।

घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, रेप पर कानून, 5 सेकेंड से अधिक घूरने पर सजा, पर वास्तविकता में क्या है इससे न आप अपरिचित है न ही मैं, बस इन सबसे मुँह मोड़े हुए हैं वो अलग बात है।  मेरा व्यक्तिगत मानना है अकेले रहना किसी की पसंद नही बल्की स्वयं के वजूद को बचाने की मजबूरी होती है। इसलिए समाज को ऐसी स्त्रियों को अपना हक और सम्मान दोनों ही भीख में नही बल्कि छीनकर लेना चाहिये। आपका वर्तमान में किया गया प्रयास ही भविष्य को स्वर्णिम करने की क्षमता रखता है।

                            अभिषेक द्विवेदी (शिक्षक)

प्राथमिक विद्यालय मन्हापुर सरवनखेड़ा कानपुर देहात।
Author: AMAN YATRA

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