।। एक अधूरी ख्वाहिश मन की ।।
# अधूरी छूट ही जाती हैं
आखिर!
कई अभिलाषाएं मन की ।
मन के तहखाने में हो जाती हैं बंद
जैसे,बंद हो कई वर्षों से
सुनसान कमरे की दरवाजे और खिड़कियां ।।
जाले की धुंध सी
लग जाती हैं मन और ख्वाहिश को भी
गर्त ।
मन,
जो करता हैं ख्वाहिश
गुजरते वक्त के साथ
शिथिल हो जाती हैं उसकी तीव्रता ।
एक समय तक इंतजार के बाद,
समाप्त हो जाती हैं अभिलाषा
पाने और खोने के अविरल सिलसिले
के साथ ।।
ख्वाहिशें मन की,
मन दरमियान ही दम तोड देती हैं ।
ना पूरी होने के बाद ।।
ख्वाहिशें,अनंत और मन भी
जुगत लगाए अनंत ।
मैं! जीता रहा उम्र तमाम
ख्वाहिशों के भंवर जाल में ।।
अब तो,आलम कुछ यूं हैं
ना मन में बाकी हैं कोई तमन्ना
ना ही,
मन करता हैं कोई ख्वाहिश ।।
एक अधूरी ख्वाहिश मन की
# स्नेहा सिंह
(रचनाकार)
कानपुर U.P.