गाँव के स्कूलों को बंद करना मतलब गाँव की आत्मा को छीन लेना

शिक्षा के बिना, गाँव अपनी पहचान, संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने को खो देता है। गाँव का जीवन स्कूलों के महत्व पर जोर देता है। स्कूल न केवल शिक्षा का केंद्र होते हैं बल्कि वे समुदाय का भी एक अभिन्न अंग होते हैं। वे युवाओं को ज्ञान और कौशल प्रदान करते हैं जो उन्हें अपने भविष्य को आकार देने में मदद करते हैं

कानपुर देहात। शिक्षा के बिना, गाँव अपनी पहचान, संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने को खो देता है। गाँव का जीवन स्कूलों के महत्व पर जोर देता है। स्कूल न केवल शिक्षा का केंद्र होते हैं बल्कि वे समुदाय का भी एक अभिन्न अंग होते हैं। वे युवाओं को ज्ञान और कौशल प्रदान करते हैं जो उन्हें अपने भविष्य को आकार देने में मदद करते हैं। वे सामाजिक मेलजोल और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी एक महत्वपूर्ण स्थान होते हैं। जब स्कूलों को गाँव से हटा दिया जाता है तो यह न केवल शिक्षा तक पहुंच को सीमित करता है बल्कि यह समुदाय की भावना को भी कमजोर करता है। इससे युवा पीढ़ी को गाँव से दूर होने और पारंपरिक जीवन शैली को छोड़ने के लिए प्रेरित होना पड़ता है। इस संदर्भ में शिक्षक प्रवीण त्रिवेदी कहते हैं कि वर्षों के शिक्षण अनुभव में मैंने जो सबसे गहरा सत्य जाना है वह यह है कि गांवों में कोई भी स्थान इतना जीवंत, सजीव और भरोसेमंद नहीं होता जितना कि वहां का विद्यालय। किसी भी कार्य दिवस में यदि आप किसी गांव में प्रवेश करें तो एकमात्र स्थान जहां रौनक, अनुशासन, उत्साह और जीवन दिखता है वह होता है गांव का स्कूल।

वहां बच्चों की आवाजें होती हैं, शिक्षकों का मार्गदर्शन होता है और एक ऐसी ऊर्जा होती है जो बाकी पूरे गांव को भी सजीव बनाए रखती है। गांव का स्कूल केवल बच्चों की शिक्षा का केंद्र नहीं होता वह पूरे गांव की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का केन्द्र भी होता है। वह एकमात्र स्थान है जहां प्रशासनिक बैठकों से लेकर जागरूकता अभियानों, टीकाकरण शिविरों से लेकर प्रशिक्षण कार्यक्रमों तक सब कुछ संभव होता है। जब शासन या विभाग को कोई कार्यक्रम कराना होता है जैसे स्वच्छता अभियान, बाल विवाह विरोधी रैली, टीबी जागरूकता, मतदान प्रेरणा, यहां तक कि महिला सशक्तिकरण बैठकें तो गांव में एकमात्र विकल्प होता है स्कूल। कितने गांव ऐसे हैं जहां पंचायत भवन या अन्य सामुदायिक स्थलों में इतनी नियमितता से कोई आयोजन होता हो शायद बहुत कम। यह विद्यालय ही होता है जिससे अभिभावकों को यह भरोसा होता है कि उनके बच्चे सुरक्षित हैं। खेतों में काम करते मां-बाप को यह तसल्ली होती है कि स्कूल में उनका बच्चा न केवल पढ़ रहा है बल्कि अच्छा वातावरण पा रहा है। गांव के स्कूल से ही निकलती है वह प्रभात फेरी जो स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति का भाव गांव-गांव में बोती है। यहीं से निकलते हैं वे नारे जो स्वच्छता, स्वास्थ्य, समानता और शिक्षा की अलख जगाते हैं और अब केवल नामांकन कम होने के आधार पर इन विद्यालयों को बंद करने या दूसरे विद्यालयों से मर्ज कर देने का प्रस्ताव आया है? यह मर्जर नहीं, गांव की आत्मा का विसर्जन है।

कम नामांकन कभी भी स्कूल की उपयोगिता का मापदंड नहीं हो सकता। गांव में अगर दस बच्चे भी हैं तो उनके लिए वही स्कूल जीवनरेखा है। अगर हम इसे छीन लेते हैं तो हम केवल एक भवन नहीं हटाते, हम उस गांव से वह पहचान छीन लेते हैं जो उसे जीवंत बनाती है। शिक्षा नीति का उद्देश्य स्कूलों को सजाना या गिनती में समेटना नहीं है बल्कि हर गांव, हर बच्चे तक शिक्षा का अधिकार पहुंचाना है वह भी सम्मान और आत्मविश्वास के साथ। यदि किसी स्कूल में कम नामांकन हैं तो हमें वहाँ संसाधन और शिक्षक भेजने चाहिए ना कि विद्यालय हटाने चाहिए। पेयरिंग या मर्जर का तात्कालिक लाभ दिख सकता है पर दीर्घकालिक नुकसान बहुत बड़ा है। यह सामाजिक अलगाव, शैक्षिक असमानता और बालिकाओं की शिक्षा में गिरावट लाएगा। हम यह नहीं कह रहे कि सुधार न हों, हम यह कह रहे हैं कि सुधार वहाँ हों जहां जरूरत है। विद्यालयों को बंद करके नहीं उन्हें मजबूत करके बदलाव लाना होगा। अगर गांवों से स्कूल छीन लिए गए, तो आने वाले वर्षों में गांव केवल नक्शों में रह जाएंगे जीवन से कटे हुए, आत्मा से विहीन। गांव का स्कूल केवल एक संस्था नहीं, एक प्रतीक है उम्मीद का, उजाले का, बदलाव का। इस प्रतीक को बचाना हमारा सामाजिक कर्तव्य है वरना जिस दिन गांव का स्कूल बंद होगा, उस दिन सिर्फ दरवाजा नहीं बंद होगा बल्कि उस गांव के भविष्य की खिड़की भी बंद हो जाएगी।

Author: anas quraishi

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