जालौन

जालौन: गुम होती बहुरूपियाई रंगत, कलाकार कर रहे वजूद की आखिरी लड़ाई

आधुनिकता के शोरगुल में भारत की एक और अनमोल पारंपरिक कला कराह रही है - बहुरूपिया। कभी अपनी अद्भुत वेशभूषा और जीवंत अभिनय से हर चेहरे पर हंसी लाने वाले ये कलाकार आज गुमनामी के अंधेरे में अपनी कला को बचाने के लिए जूझ रहे हैं।

उरई: आधुनिकता के शोरगुल में भारत की एक और अनमोल पारंपरिक कला कराह रही है – बहुरूपिया। कभी अपनी अद्भुत वेशभूषा और जीवंत अभिनय से हर चेहरे पर हंसी लाने वाले ये कलाकार आज गुमनामी के अंधेरे में अपनी कला को बचाने के लिए जूझ रहे हैं। विडंबना यह है कि इस सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए न तो सरकार की कोई ठोस योजना है और न ही समाज में इसके प्रति कोई खास जुनून दिखाई देता है।

बहुरूपिया कला, जो कलाकारों को पल भर में किसी भी रूप में ढल जाने की अद्भुत क्षमता देती है, सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं थी। यह लोक कथाओं, सामाजिक संदेशों और जीवन के विभिन्न रंगों को जीवंत करने का एक सशक्त माध्यम थी। हर किरदार में जान फूंककर ये कलाकार दर्शकों को सोचने, मुस्कुराने और कभी-कभी हैरान होने पर मजबूर कर देते थे।

राजस्थान के झुंझुनू के दो कलाकार, राकेश और अजय कुमार, आज भी जालौन के गांवों की गलियों में अपनी कला की लौ को बुझाने से रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनका दर्द साफ झलकता है जब वे इस कला के पतन के कारणों पर बात करते हैं। उनके अनुसार, बहुरूपिया कलाकारों की आय इतनी कम है कि वे मुश्किल से अपना पेट भर पाते हैं। आधुनिकता की चकाचौंध ने लोगों को पारंपरिक कलाओं से दूर कर दिया है, और सरकार की बेरुखी ने इस संकट को और गहरा कर दिया है।

“यह कला हमारी पहचान है, हमारी विरासत है,” कहते हुए राकेश की आवाज में उदासी घुल जाती है। “कभी लोग हमारी कला देखने के लिए दूर-दूर से आते थे, आज हमें दो वक्त की रोटी के लिए भीख मांगनी पड़ती है।” अजय कुमार अपनी बात में जोड़ते हैं, “नई पीढ़ी इस कला को जानती भी नहीं। उन्हें तो बस मोबाइल और टीवी का चस्का लग गया है।”

इन कलाकारों की सबसे बड़ी चिंता सरकार की उदासीनता है। उनका मानना है कि सरकार की ओर से बहुरूपिया कला को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस और प्रभावी प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। उन्होंने भावुक अपील करते हुए कहा कि सरकार को इस कला को विलुप्त होने से बचाने और इसे आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहायता और अन्य आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। समाज में भी इस कला के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए विशेष अभियान चलाने की जरूरत है। राकेश और अजय कुमार का सुझाव है कि इस अनमोल कला को संरक्षित करने के लिए इसका व्यवस्थित दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए और नियमित रूप से इसके प्रदर्शन आयोजित किए जाने चाहिए, ताकि नई पीढ़ी भी इससे जुड़ सके और इस कला की बारीकियों को समझ सके।

“अगर सरकार हमें थोड़ा भी सहारा दे, तो हम अपनी कला को फिर से जिंदा कर सकते हैं,” अजय कुमार कहते हैं, उनकी आंखों में एक उम्मीद की किरण चमकती है। “हम अपनी कला के माध्यम से लोगों को फिर से हंसा सकते हैं, उन्हें अपनी संस्कृति से जोड़ सकते हैं।”

राकेश और अजय कुमार की आंखों में एक उम्मीद अभी भी बाकी है। वे मानते हैं कि अगर सरकार और समाज मिलकर इस लुप्त होती कला को बचाने का संकल्प लें, तो बहुरूपियाई रंगत एक बार फिर हमारी संस्कृति में घुल सकती है और यह अनमोल विरासत हमेशा के लिए सुरक्षित हो सकती है। क्या उनकी यह आवाज सुनी जाएगी? क्या बहुरूपिया कला फिर से अपनी पहचान बना पाएगी? यह सवाल आज हर कला प्रेमी के मन में गूंज रहा है। कहीं ऐसा न हो कि आधुनिकता की दौड़ में हम अपनी जड़ों को ही भूल जाएं।

Author: aman yatra

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