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टेट की अनिवार्यता से शिक्षकों में आक्रोश, 30 साल नौकरी करने के बाद शिक्षक फिर पढ़ने को हुए मजबूर

गाँव के छोटे से प्राथमिक विद्यालय के बरामदे में मासाब कुर्सी पर बैठे थे। चेहरे पर धूप-छाँव की तरह गुस्सा और दर्द दोनों खेल रहे थे। वर्षों की मेहनत, संघर्ष और तपस्या जैसे किसी ने अचानक खारिज कर दी हो।

राजेश कटियार, कानपुर देहात। गाँव के छोटे से प्राथमिक विद्यालय के बरामदे में मासाब कुर्सी पर बैठे थे। चेहरे पर धूप-छाँव की तरह गुस्सा और दर्द दोनों खेल रहे थे। वर्षों की मेहनत, संघर्ष और तपस्या जैसे किसी ने अचानक खारिज कर दी हो। सुप्रीम कोर्ट का नया फरमान आया था बगैर टेट के पढ़ा रहे शिक्षक दो साल में परीक्षा पास करो, वरना नौकरी से बाहर। यह आदेश उनके दिल पर किसी हथौड़े की चोट की तरह पड़ा था।

मासाब ने ठंडी साँस छोड़कर फिर व्यंग्य से भरी आवाज में कहा अगर पढ़ाने वाला सिर्फ इसलिए अयोग्य है कि उसके पास कागज का एक सर्टिफिकेट नहीं है तो फिर मेरे पढ़ाए हुए सभी बच्चों की नौकरी क्यों बची रहे? चलिए अफसर, बैंककर्मी, सिपाही, मिस्त्री सबको बाहर निकाल दीजिए क्योंकि उन्हें पढ़ाने वाला तो अपराधी था जिसके पास टेट नहीं था। उनकी आंखें तमतमा उठीं। दोष मेरा नहीं, उस व्यवस्था का है जिसने हमें वर्षों तक पढ़ाने दिया, बच्चों को सपनों के पंख दिए और आज अचानक हमें बेदखल करने की तलवार लटका दी। काश तब ही कह दिया होता कि हम अयोग्य हैं। मगर नहीं हमें खपने दिया, मेहनत से पिसने दिया और अब इस तरह की आज्ञा थमा दी। मासाब ने कटाक्ष की धार और तेज कर दी क्यों न एक और आदेश जारी कर दिया जाए कि जिन बच्चों को टेट-विहीन मास्टरों ने पढ़ाया है, उन्हें तुरंत अनपढ़ घोषित कर दिया जाए।

उनकी डिग्रियाँ रद्द कर दी जाएँ, उनकी तनख्वाहें जब्त कर ली जाएँ, उनकी सफलताओं को अमान्य कर दिया जाए तभी तो साबित होगा कि बिना टेट के शिक्षा का कोई मतलब ही नहीं होता। बरामदे में सन्नाटा पसर गया। मासाब की आवाज गूंजती रही यह व्यथा नहीं थी बल्कि उस व्यवस्था पर तीखा प्रहार था जो शिक्षण को कागज़ के टुकड़े से तोलती है और शिक्षक की दशकों की निष्ठा को व्यर्थ बता देती है। अंत में मासाब ने ठहरकर धीमी मगर भारी आवाज में कहा हमें निकाला जा सकता है मगर हमारी मेहनत को नहीं।

अगर व्यवस्था इतनी ही कठोर है तो उसे चाहिए कि वह हमारे बच्चों की उड़ान भी काट दे लेकिन याद रखिए, उन बच्चों ने अपने पैरों पर खड़े होकर संघर्ष करना सीखा है और उन्हें कोई फरमान रोक नहीं सकता। यह कहते-कहते उनकी आंखों में आँसू चमक उठे, मगर वह आंसू बेबसी के नहीं, व्यवस्था को आईना दिखाने वाले व्यंग्य के थे।

Author: aman yatra

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