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तालीम की राह में जब रुकावटें बढ़ती जाती हैं, शिक्षक की मेहनत समाज में बदनाम हो जाती है

आज की शिक्षा व्यवस्था पर बात करते हुए जब बच्चों के ककहरे तक सीमित ज्ञान की बात होती है तो समाज और मीडिया अक्सर शिक्षकों को निशाने पर लेते हैं। कई बार आपने सुना होगा कि बड़ी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को ककहरा भी ठीक से नहीं आता। यह स्थिति न केवल शर्मिंदगी का विषय बनती है बल्कि इसे एक पूरे पेशे की असफलता के रूप में चित्रित किया जाता है।

राजेश कटियार, कानपुर देहात। आज की शिक्षा व्यवस्था पर बात करते हुए जब बच्चों के ककहरे तक सीमित ज्ञान की बात होती है तो समाज और मीडिया अक्सर शिक्षकों को निशाने पर लेते हैं। कई बार आपने सुना होगा कि बड़ी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को ककहरा भी ठीक से नहीं आता। यह स्थिति न केवल शर्मिंदगी का विषय बनती है बल्कि इसे एक पूरे पेशे की असफलता के रूप में चित्रित किया जाता है।

शिक्षकों पर होने वाली इस नकारात्मक आलोचना को समझने से पहले हमें समाज और परिवेश की भूमिका का भी ध्यान रखना होगा जो इस मुद्दे को और गंभीर बनाता है। शिक्षकों को अक्सर यह उम्मीद होती है कि वे केवल शिक्षा के माध्यम से ही बच्चों के व्यक्तित्व को संवारें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्राथमिक शिक्षा हर बच्चे की नींव होती है और यदि यहां शिक्षक असफल होते हैं तो इसका प्रभाव बच्चे के पूरे जीवन पर पड़ता है परंतु शिक्षकों पर यह दबाव बनाना कि वे हर बच्चे को आदर्श नागरिक बनाएंगे एक प्रकार से अवास्तविक अपेक्षा है।

बड़े कक्षा के बच्चों को ककहरा तक न आना, निश्चित रूप से शिक्षक और शिक्षा तंत्र की कमजोरी को दर्शाता है लेकिन क्या इसका सारा दोष शिक्षकों पर मढ़ना/डालना उचित है। समाज और मीडिया द्वारा शिक्षकों को असफल ठहराने से पहले हमें उन परिस्थितियों को समझने की जरूरत है जिनमें शिक्षक काम कर रहे हैं। अगर बच्चों को ककहरा नहीं सिखाया जा सका है तो इसका मतलब यह नहीं कि शिक्षक असफल हैं। इसका मतलब यह है कि बच्चे अपने समाज और परिवार से उस शिक्षा का समर्थन प्राप्त नहीं कर रहे हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता है।

शिक्षा केवल कक्षा की चार दीवारों तक सीमित नहीं है। बच्चे का सामाजिक परिवेश, घर का माहौल और आसपास का वातावरण भी उसकी शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह देखा गया है कि कई बच्चे जिन्हें ककहरा ठीक से नहीं आता वे सामाजिक तौर पर अश्लील भाषा और व्यवहार में अकुशल होते हैं। यह समाज का ही दायित्व है कि बच्चों को शिक्षा के साथ नैतिक और सुसंस्कृत करने की जिम्मेदारी उठाए।

जब बच्चा घर से स्कूल आता है तो वह अपने साथ अपने परिवार और समाज की पूरी पृष्ठभूमि लेकर आता है। यदि परिवार और समाज ने बच्चे को अभद्र भाषा और अनुशासनहीनता सिखाई है तो यह शिक्षक के लिए और भी कठिन हो जाता है कि वह उसे शिक्षा के आदर्श मार्ग पर लेकर आए। इसके बावजूद यदि बच्चा ककहरे में असफल हो जाता है तो उसे केवल शिक्षक की असफलता मानकर प्रचारित किया जाता है जबकि समाज खुद उसकी नैतिक शिक्षा में बुरी तरह विफल हो चुका होता है।

मीडिया और समाज का एक बड़ा वर्ग इस स्थिति का केवल एकतरफा आकलन करता है। वे उन चुनौतियों को नजरअंदाज कर देते हैं जो शिक्षक झेल रहे होते हैं। शिक्षकों के पास आज के समय में इतने ज्यादा कागजी काम होते हैं कि बच्चों की मूलभूत शिक्षा पर ध्यान देना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा सरकार और प्रशासन की नई-नई नीतियों ने भी शिक्षकों को सीमाओं में जकड़ रखा है। मीडिया अक्सर केवल नकारात्मक पहलू दिखाती है। ऐसी रिपोर्ट्स की कमी रहती है जो यह बताएं कि शिक्षक किन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और बच्चों के व्यक्तिगत विकास में समाज की क्या भूमिका है। शिक्षकों को हमेशा समाज का मार्गदर्शक माना जाता है लेकिन अगर समाज खुद अपने मार्ग से भटक चुका हो तो शिक्षक बेचारे अकेले क्या कर पाएंगे ?

समाधान की दिशा में क्या हो कदम-

समस्या का समाधान केवल शिक्षकों को कोसने से नहीं होगा। समाज और शिक्षक के बीच एक सेतु बनाना आवश्यक है जहां दोनों अपनी जिम्मेदारियों को समझें और बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए काम करें। शिक्षक को भी यह समझना होगा कि केवल पाठ्यक्रम को पूरा करना उनका कार्य नहीं है बल्कि उन्हें बच्चों के व्यक्तित्व विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। वहीं समाज को यह मानना होगा कि बच्चे की नैतिक और सामाजिक शिक्षा उसकी जिम्मेदारी है न कि सिर्फ स्कूल की। मीडिया को भी अपनी भूमिका को सकारात्मक रूप से निभाने की आवश्यकता है। शिक्षकों की समस्याओं और चुनौतियों को उजागर करने के साथ-साथ समाज की भूमिका पर भी प्रश्न उठाए जाने चाहिए। इससे ही सही दिशा में विचार-विमर्श हो सकेगा और शिक्षा तंत्र को सुधारने में मदद मिलेगी। शिक्षकों को दोष देना आसान है लेकिन समाज की जिम्मेदारी को अनदेखा करना शिक्षा की वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। शिक्षकों और समाज के बीच सामंजस्य ही हमें उस दिशा में ले जाएगा जहां बच्चों की शिक्षा सही मायने में सम्पूर्ण होगी।

AMAN YATRA
Author: AMAN YATRA

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