रोचक कहानी

देवी मां (कहानी)

‘अरे देखो, रमा। कोई सामान छूटा तो नहीं है?’ सामान की लिस्ट दिखाते हुए रजत ने पूछा। रमा ने एक सरसरी निगाह लिस्ट पर डाली। नारियल, चुनरी, बताशे, धूप, अगरबत्ती, माताजी की फोटो..। ‘ओह! आप भी न कमाल करते हैं।

अरे देखो, रमा। कोई सामान छूटा तो नहीं है?’ सामान की लिस्ट दिखाते हुए रजत ने पूछा। रमा ने एक सरसरी निगाह लिस्ट पर डाली। नारियल, चुनरी, बताशे, धूप, अगरबत्ती, माताजी की फोटो..। ‘ओह! आप भी न कमाल करते हैं। इसमें कलश कहाँ लिखा है आपने? सबसे पहले तो वहीं जरूरी है।’ रमा बोली।

दरअसल बात यह थी कि कल से शारदीय नवरात्र शुरू हो रहे थे। रमा और रजत हर वर्ष बड़ी श्रद्धा से कलश स्थापना करवाते थे। नौ दिन तक भजन-कीर्तन होता। अंतिम दिन कंजकों को जिमा कर दोनों अपना व्रत तोड़ते थे। नौ दिन तक घर मंदिर के समान लगता था। सामान लेने के लिए रजत बाजार चला गया।

घर से निकलते ही उसका मोबाईल बज उठा। किसी अनजान नम्बर से कॉल थी। रजत ने कॉल रिसीव की। ‘‘हेलो, कौन?’’ उधर से जवाब आया, ‘अरे, रजत भइया। हम बहारन बोल रहे है। अरे आज भोर से ही चाची की तबियत अचानक बिगड़ गयी थी। पटना लेकर आये थे। डॉक्टर ने उनको दिल्ली रेफर कर दिया है। हम ‘पूर्वा एक्सप्रेस’ पकड़ लिये है। कल भोरे नई दिल्ली उतरेंगे। आप आ जाइएगा इसटेसन।’’

सुनते ही रजत का दिमाग सुन्न हो गया। ये क्या हो गया मां को? अच्छी भली तो थी। कितनी बार कहां कि हमारे साथ आकर रहो। पर उन्हें तो वहीं मिट्टी-गोबर में रहना पसंद है। व्यंग्य से रजत बड़बड़ाते चला जा रहा था। तभी उसे याद आया, पिताजी के गुजर जाने के बाद मां आयी थी दिल्ली। तीन सप्ताह में ही उसे और रमा को आटे-दाल का भाव मालूम पड़ गया था। दो कमरों के फ्लैट में जैसे-तैसे बच्चों के कमरे में एडजस्ट किया था मां को। वहाँ भी बच्चों की शिकायत कि दादी रात भर कुछ न कुछ बोलती रहती है। अच्छी तरह से सोने भी नहीं देतीं। तीन सप्ताह बाद ही मां ने आजीवन गाँव में रहने का निर्णय ले लिया था। फिर आज, अचानक इस हाल में!

अगले दिन विधि-विधान से कलश स्थापना हुई और बहारन मां को पहुँचाकर गाँव चला गया। रजत ने जांच करवाई तो मां को स्तन कैंसर था। आखिरी स्टेज। बीसवीं सदी की लज्जाशील कन्या के स्तन कैंसर का पता, आखिरी स्टेज से पहले कैसे लगता? जब घुट्टी में ही पिला दिया गया था कि गुप्तांगों की चर्चा करने वाली लड़कियां बदचलन होती है। रजत ने बहुत प्रयास किया पर किसी अस्पताल में मां को भर्ती न करवा सका। घर पर ही मां की देखभाल व प्राइवेट डॉक्टर से इलाज चलने लगा।

नवरात्र के दिनों में आफिस के साथ-साथ पूजा-पाठ में रजत बहुत व्यस्त रहता था। इन दिनों रमा काम भी बढ़ जाता। भोग बनाना, बच्चों का खाना बनाना, अपने और रजत के लिए व्रत का खाना बनाना, और अब ऊपर से मां का काम! रजत और रमा दोनों परेशान हो गये। सुबह नहा-धो कर रमा माताजी की फोटो को साफ करती, मंदिर साफ करती। धूप, अगरबत्ती, दीया जलाती भोग लगाती। तब तक रजत भी नहा-धो कर पूजा करने आ जाता।

मां इतनी अशक्त हो चुकी थी कि नित्यकर्म भी खुद से न कर पाती थी। पूजा से निपट कर रमा और रजत मिलकर मां को नित्यकर्म करवाते। मां का शरीर भारी होने के कारण दोनों को ही संभालना पड़ता था। मुँह-हाथ धुलाने, कपड़े बदलवाने के साथ-साथ दोनों बोलते जाते थे ‘‘पूजा-पाठ के घर में इतनी गंदगी, रोज बिस्तर बदलो, रोज ही गंदा हो जाता है।’’ मां टुकुर-टुकुर उनका चेहरा निहारती और कभी चौकी पर रखी देवी मां का। जैसे-तैसे नौ दिन पार लगे।

कल कन्याओं को जिमाना था। रजत ने छुट्टी ले ली। दोनों सुबह से ही पूरी, हलवा, चना, कंजकों के लिए प्लेट, रूमाल, कंगन, आदि की तैयारी में लगे थे। मां ने घर की व्यस्तता देखी व रोज के कड़वे बोलों को याद किया। फिर सोचा आज के दिन चिल्लाऊंगी तो बेटा-बहु नाराज हो जाएंगे। पूजा में विध्न पडे़गा सो अलग। यहीं सोच मां धीरे-धीरे चारपाई का सहारा लेकर नीचे उतरी व दीवार के सहारे बाथरूम जाने लगी। शरीर के धक्के से दरवाजा खोला। तभी मग में रखा पानी दरवाजे के धक्के से फर्श पर बिखर गया। एक कदम आगे बढ़ाते ही धड़ाम की आवाज हुई। मां गिर पड़ी। रजत, रमा व बच्चे दौड़े आए। मां के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।

रमा शोक से चिल्लाने लगी ‘‘हाय! ये क्या हो गया?‘‘ कंजकों के रूप में सजी लड़कियाँ पांव में महावर, माथे पर बिन्दी लगाये, चुनरी ओढ़े मां के चारो ओर आकर खड़ी हो गयीं। रजत किसी तरह दीवार का सहारा लेकर खड़ा था। बच्चे हक्का-बक्का रह गये थे। अपराध बोध से भरकर रजत ने कहां ‘‘काश! मां थोड़ा सब्र करती।’’ रमा बोली ‘‘मां की सेवा भी ठीक से न कर सकी। मेरे मन की मन में ही रह गयी।’’ मां निश्चल पड़ी हुई थी। ‘‘पूजा‘‘ में विध्न पड़ चुका था।

लेखक –सुनीता मंजू

 

Author: aman yatra

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