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राजेश कटियार, कानपुर देहात। टीईटी अनिवार्यता का प्रश्न आज सिर्फ नियमों और आदेशों का मामला नहीं रह गया है बल्कि यह शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों की गरिमा से जुड़ा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश एनसीटीई की 23 अगस्त 2010 की अधिसूचना और बाद की संशोधित अधिसूचनाओं को देखने पर साफ होता है कि असल गलती शिक्षकों की नहीं बल्कि नीतिगत लापरवाही और प्रशासनिक जिम्मेदारी से बचने की रही है। एनसीटीई ने नियम तो बना दिए पर उनके अनुपालन की ठोस तैयारी नहीं की। यदि नए मानदंड लाने थे तो उसके साथ व्यापक प्रशिक्षण योजना, संसाधन और समयबद्ध संक्रमण नीति भी बननी चाहिए थी।
राज्य सरकारों ने भी इन नियमों को लागू करने के लिए स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण, फंडिंग और सुविधाओं की व्यवस्था करने में गंभीर चूक की। नतीजा यह हुआ कि हजारों शिक्षक जिनकी सेवा सालों के अनुभव से शिक्षा व्यवस्था को मजबूती देती रही अब डर और अनिश्चितता में जी रहे हैं।
समय-सीमाएँ बढ़ाने का खेल भी इस दौरान चलता रहा है पर असल में कोई प्रशिक्षण व्यवस्था विकसित नहीं की गई। यह सिर्फ प्रशासनिक जिम्मेदारी टालने का तरीका साबित हुआ। पूर्वव्यापी नियम लागू करने से बचाने की संवैधानिक चेतावनियों के बावजूद एनसीटीई और राज्य सरकारें स्पष्टता देने में विफल रहीं। इसका परिणाम यह है कि आज अनुभवी शिक्षकों में मानसिक तनाव, पारिवारिक दबाव और असुरक्षा की स्थिति पैदा हो गई है। 55 साल की उम्र के बाद भी शिक्षक रात में पढ़ाई करने को मजबूर हो गए हैं। ग्रामीण स्कूलों में शिक्षकों की निरंतरता और शिक्षा की गुणवत्ता पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है। इस स्थिति में तत्काल कुछ ठोस कदम आवश्यक हैं।
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सबसे पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय, एनसीटीई और राज्य सरकारों को स्पष्ट और सार्वभौमिक स्पष्टीकरण देना चाहिए कि किन शिक्षकों को 2010 की अधिसूचना के तहत छूट मिली थी और किसे कब तक अनुपालन करना है। इसके साथ ही प्रशिक्षण के लिए मुफ्त मॉड्यूल, ऑनलाइन-ऑफलाइन कोर्स और पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए। जो शिक्षक प्रशिक्षण के लिए पंजीकरण कर लें उनकी सेवाओं पर कोई नकारात्मक कार्यवाही न हो और जिन क्षेत्रों में प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध नहीं है उन्हें संवैधानिक संरक्षण दिया जाए। अनुभवी शिक्षकों के ज्ञान और वर्षों की सेवा को मान्यता देते हुए वैकल्पिक मूल्यांकन या ब्रिज कोर्स जैसी व्यवस्था लागू की जा सकती है।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि एनसीटीई और राज्य सरकारों की जवाबदेही तय हो। यह पूछा जाना जरूरी है कि समय रहते प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध क्यों नहीं कराए गए। जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी तब तक ऐसी लापरवाही दोहराई जाती रहेगी। अंततः यह सवाल सिर्फ प्रशासनिक कमी का नहीं बल्कि न्याय और संवैधानिक मूल्यों का है। बिना पर्याप्त तैयारी और सहयोग दिए शिक्षकों को नियमों के कठघरे में खड़ा करना किसी भी लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप नहीं है।
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अब जरूरत है कि नीति-निर्माता शिक्षक वर्ग को संदेह की नजर से देखने के बजाय करुणा, न्याय और सार्वजनिक हित के सिद्धांतों पर आधारित समाधान निकालें। यही रास्ता न केवल शिक्षकों की गरिमा की रक्षा करेगा बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पतन से बचाएगा।
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