नैतिकता फेमिनिस्ट्स की तरह लिंगभेद नहीं करती वो स्त्री व पुरुष दोनों के लिए एक समान आवश्यक और जन्म से ही बच्चों को इसका पाठ पढ़ाया जाता क्योंकि, कोई भी अपने नौनिहालों को अनैतिक नहीं देखना चाहता कि अनैतिक होना मानव का चारित्रिक रूप से पतन कर देता यही वजह कि बाल्यकाल से ही इस पर जोर दिया जाता है । इसके बावजूद भी फेमिनिस्ट्स का अक्सर, यही सवाल होता कि नैतिकता का बोझ महिलाओं पर ही क्यों या नैतिकता केवल महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं या नैतिकता की अपेक्षा स्त्रियों से ही क्यों की जाती है । तब मन में यह प्रतिप्रश्न उत्पन्न होता कि इसके पीछे उनका उद्देश्य क्या, क्या वे अनैतिक काम करना चाहती या वे जानती हैं कि जो कुछ भी वे कर रहीं वह अनैतिक तो अपनी अनैतिकता को ढंकने व अपने अनैतिक कृत्यों को न्यायसंगत ठहराने वे उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर समाज को ही लताड़ने लगती हैं । वास्तव में उनकी समस्या यह होती कि वह उन कामों को करना चाहती जो उन्हें भी बचपन से अनैतिक बताए गए तो कहीं न कहीं उनके भीतर भी इसको लेकर कोई ग्लानि या संकोच होता तो उसे दूर करने का यही सही उपाय लगता कि उसे नैतिक बना दिया जाए या खुद से नैतिकता का लेबल हटा दिया जाए तो दोनों में आसान अपने पर लगे ठप्पे को हटाना जो वे धीरे-धीरे करती जा रही हैं ।
अपने आस-पास ही हम बहुत से ऐसे लोगों को देखते जो अपनी गलतियों व अपने गुनाहों को छिपाने या उसका अहसास होने पर जब स्वयं को उस जगह अकेले पाते तब दूसरों को भी उस दलदल में खींचने के लिए ऐसा जताते मानो जो वे कर रहे वह बहुत ही बढ़िया काम और जब ऐसा नहीं कर पाते तो दूसरा तरीका होता कि वह चिल्ला-चिल्लाकर दूसरो पर ही आरोप लगाने लगते कि वे ही गलत हैं । जब यह तरीका काम नहीं करता तो फिर कहते उन्होंने ठेका नहीं ले रखा कि वही ईमानदारी निभाये, सत्य का पालन करें मतलब कि उस वक़्त तक उन्हें यह बोध होता कि जो वह कर रहे या करने जा रहे वह अनैतिक है । एक बार मगर, जब अनैतिकता की लत लग जाती तो यह झीना से पर्दा जो आत्मा पर पड़ा वह भी हट जाता तब अपना किया सब जायज लगने लगता जैसै किसी आतंकी को लगता कि उसके साथ अन्याय हुआ तो वह क्या करता उसने भी हजारों निर्दोषों की जान ले ली उसकी नजर में यह सही होता है। उसी तरह फेमिनिस्ट्स की दृष्टि में अनैतिक-नैतिक कुछ नहीं स्वैच्छाचार व मनमानी माय लाइफ माय चॉइस ही जीवन मंत्र होता है बस, उसे अपनाने से पहले बार-बार ठोक-बजाकर देख लेन चाहती तो बार-बार ऐसे स्टेटमेंट या बयान देती रहती जिसके जरिये दूसरों के विचार जान सके बाकी करना मनमर्जी ही है ।
हम दूसरों के उदाहरण कभी कृष्ण तो कभी द्रोपदी के देकर अपने गलत कामों को सही ठहराने की जो जबरन कोशिश करते वही हमारी नीयत को ज़ाहिर कर देती क्योंकि, हम खुद को अकेले कटघरे में खड़े नहीं देखना चाहते उसके अलावा हम समाज से मान्यता भी चाहते तो ऐसे-ऐसे कुतर्क गढ़ते हैं। जिन्हें पढ़कर कोई भी हंसने लगे कि भई तुझे जो करना है कर उसके लिए समाज में प्रतिष्ठित आदर्शों पर लांछन लगाने या अपने आपको उनके समकक्ष रखने की बेहूदा हरकत मत कर यह आपकी पोल खोल देता है । दरअसल, ऐसा करने की वजह सामने वाले को बहकाना तो जिनका अपना नैतिक सम्बल नहीं वे खुश होकर उस पाले में चले जाते पर, जिनके मन में इसको लेकर किसी तरह का संशय या भरम नहीं वे उनकी इन बातों को यूँ ही नहीं उड़ाते उस पर अपना मत जरूर रखते हैं । इस तरह करने से अगर, किसी कमजोर नैतिकता वाले का अंतर डांवाडोल हो तो वह स्थिर होकर निर्णय कर सके और एक सच्चे लेखक का यह भी नैतिक दायित्व होता इसलिए जब जहां जो भी अनैतिक या गलर दिखे उसे नजरअंदाज करना ठीक नहीं क्योंकि, आज उन दिनकर की पुण्यतिथि जिन्होंने लिखा कि जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी इतिहास तो तटस्थता सदैव अच्छी नहीं होती विशेषकर जब बात नैतिकता की हो जो समाज का आधार है ।
सनद रहे, ऑर्गेज़म कोई ऑक्सीजन नहीं जिसके बिना कोई मर जाये पर, नैतिकता जरूर संजीवन होती जो मरते हुए को भी जीवन दे देती है ।
सुश्री इंदु सिंह
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ अप्रैल २०२२