कविता

परंपरा की परंपरा का परम्पराओं से बड़ा पुराना नाता, वर्तमान का नवयुवक नहीं इसे निभाता

आज भी परंपराओं को निभाने की परंपरा जिंदा है। पैदा होने से लेकर मरने तक यहां आदमी परंपराओं को निभाता है। सच तो यह है कि यहां आदमी परंपराओं को ही ओढ़ता है और परंपराओं को ही बिछाता है।

आज भी परंपराओं को निभाने की परंपरा जिंदा है। पैदा होने से लेकर मरने तक यहां आदमी परंपराओं को निभाता है। सच तो यह है कि यहां आदमी परंपराओं को ही ओढ़ता है और परंपराओं को ही बिछाता है। परंपराएं ही पीता है, परंपराएं ही खाता है और खुशी की बात ये है कि इन परंपराओं का सबसे पहला गिफ्ट वह अपनी फेमिली से ही पाता है। भले ही सभ्यता के विकास में परिवार के आकार छोटे हो गए हों मगर हमारी निष्ठाएं इनके आकार की चिंता किए बिना भी बदस्तूर बरकरार हैं। शरीफों के सर्किल में तो अब पत्नी ही फेमिली का पर्याय हो गई है।आजकल जो भी निमंत्रण आता है उसके एक कोने में विद फेमिली या सपरिवार शब्द का डेकोरेटिव जुमला जरूर लिखा रहता है। मंहगे कार्ड पर इस डेकोरेटिव शब्द के लिखने से उसकी सज-धज में थोड़ा और इजाफा हो जाता है। वैसे इस जुमले को लिखनेवाले और पढ़नेवाले दोनों ही इसे उतनी ही गंभीरता से लेते हैं जितना कि सिगरेट पीनेवाला पेकेट पर सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है-जैसी फालतू की सूचनाओं को लेता है। ऐसे डेकोरेटिव जुमले लिखना हमारी परंपरा है और परंपरा को परंपरा की तरह ही लाइटली लेना भी हमारी परंपरा है। कोई भी सीरियसली इसे दिल पर नहीं लेता है। पर क्या करेंं। परंपरा हमारा कभी पीछा ही नहीं छोड़ती हैं लेकिन इन परंपराओं के बीच पढ़ी लिखी पीढ़ी ने नई परंपराओं को जन्म दिया है और रूढ़िवादी परंपराओं के कर्कश से काफी हद तक बाहर निकलने का प्रयास कर रहे हैं।

कानपुर देहात की वित्त एवं लेखाधिकारी (बेसिक शिक्षा) शिवा त्रिपाठी ने एक काव्य रचना के माध्यम से लोगों को रूढ़िवादी प्रथाओं से बचने का संदेश दिया है-

बहुत मुमकिन है कि वो मुझे

साबित कर दें

इक बिगड़ी हुई लड़की,


पूरा जोर लगा दें इस बात को साबित करने में कि मैंने तोड़ दिए हैं उनके बनाए समाज के तथाकथित नियम कायदे,


वो पर्चे भी बांट सकते हैं मेरे नाम के,

वो ये भी कहेंगे कि अपनी बेटियों को

बचाओ मेरी सोहबत से


मैं उन्हें खुद की तरहा बागी बना दूँगी,

क्योंकि उन्हें दबी, कुचली, सहमी लड़कियां अच्छी लगती हैं

उनकी अच्छाई की परिभाषा मुझसे बहुत जुदा है

वो सर झुकाए हुक्म मानने वाली बेटियों का इस्तकबाल करते हैं


वो खाव्हिशें, ख्वाब, हसरतें मार कर सांस लेने वाली लाशों को सर माथे पर बिठाते हैं,

हाँ मैं उनके बनाए पैमानों के खिलाफ जाती हूँ

खुलकर हँसती हूँ, बोलती हूँ, खिलखिलाती हूँ


घर के दरवाजों की ओट से झांकती नहीं

हाँ मैं सड़क पर बेखौफ चलती हूँ,

उनके संस्कारों की जंजीरों को अपने शब्दों से तोड़ती हूँ ,

वो सीधे वार नहीं करते हैं कभी

लेकिन डरते है बहुत

हाँ तो डरो हम जैसी बिगड़ी हुई लड़कियों से

क्योंकि हम जैसी लड़कियों ने तुमसे डरना छोड़ दिया है……..

Author: AMAN YATRA

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