प्राध्यापकों का शोषण न हो
देश के अनेक कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों का आर्थिक और सामाजिक शोषण चिंता का विषय है। सबसे पहले देश के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की कमी की समस्या को लेते हैं।
देश के अनेक कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों का आर्थिक और सामाजिक शोषण चिंता का विषय है। सबसे पहले देश के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की कमी की समस्या को लेते हैं। देश की सेंट्रल यूनिवर्सिटी सेटअप में फैकल्टी सदस्यों की कमी 1980 के दशक से ही बनी हुई है, लेकिन रिक्तियों की यह संख्या साल दर साल बढ़ती ही जा रही है। कुछ समय पहले शिक्षा मंत्रालय की तरफ से संसद में दिए गए एक जवाब में कहा गया था कि 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुल 6549 फैकल्टी पद खाली हैं। इस कमी की वजहों के बारे में सेंट्रल और स्टेट यूनिवर्सिटी के फैकल्टी सदस्यों के अपने-अपने तर्क हैं जिसमें बजट की कमी. योग्य आवेदक न मिलना और विश्वविद्यालय का दूरदराज के इलाकों में स्थित होना आदि शामिल हैं। अधिकांश का कहना है कि इस कमी के कारण उन पर शिक्षण कार्यों का बहुत ज्यादा बोझ होता है।
उनका दावा है कि यूनिवर्सिटी में स्टाफ कम होने और कक्षाओं की क्षमता 100 से 150 तक बढऩे के साथ उनके काम के घंटे बढक़र 18 घंटे प्रति दिन तक हो गए हैं। आज भी अनेक विश्वविद्यालयों में पिछले कुछ समय से ज्यादातर शिक्षण कार्य अस्थायी और एडहॉक शिक्षकों के भरोसे चलता रहा है। कुछ एडहॉक फैकल्टी मेंबर यह भी कहतें है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी में अनेक साल तक पढ़ाने के बाद कोई जॉब सिक्योरिटी नहीं होती है। इस समस्या से उबरने का सबसे सरल तरीका शिक्षा पर बजटीय खर्च बढ़ाना है। कई विश्वविद्यालयों के मास्टर्स डिपार्टमेंट में औसतन एक प्रोफेसर अकेले ही करीब 20 से अधिक छात्रों को गाइड करता है। प्रश्नपत्र तैयार करने, वैकल्पिक प्रश्नपत्र पढ़ाने या प्रवेश परीक्षा तय करने जैसे कार्यों से प्रोफेसरों पर काम का और ज्यादा बोझ बढ़ गया है। काम के बढ़ते बोझ के कारण प्रोफेसर साहिबान पीएचडी छात्रों को प्रभावी ढंग से गाइड करने में सक्षम नहीं होंगे, जिससे योग्य शिक्षाविदों की संख्या कम होती जाएगी।
वहीं, सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को अफोर्डेबल बनाए रखने की जरूरत है। ऐसा न होने पर अधिक योग्य उम्मीदवार विदेशी शिक्षा की ओर रुख करेंगे। एक राय यह भी है कि देशभर में फैकल्टी वैकेंसी की एक बड़ी वजह लो-क्वालिटी कैंडिडेट भी हैं। मान्यता है कि पर्याप्त योग्यता न रखने वाले उम्मीदवारों के चयन से यूनिवर्सिटी को नुकसान होता है। ऐसे प्रोफेसर होना ज्यादा जरूरी हैं जिनका पूरा फोकस शिक्षण कार्य पर हो, उन्हें किसी विषय विशेष में विशेषज्ञता के आधार पर चुना जाना चाहिए न कि जाति, धर्म या राजनीति आदि के लिहाज से। हमारे विश्वविद्यालयों को राजनीतिक विचारकों की नहीं बल्कि ऐसे विद्वानों और वैज्ञानिकों की आवश्यकता है जो सामाजिक और प्राकृतिक वास्तविकताओं के निष्पक्ष आलोचक हों। राजनीतिक मंशा और पीएचडी उम्मीदवारों का खराब प्रशिक्षण दो अलग-अलग लेकिन ऐसे प्रमुख फैक्टर हैं जो किसी उम्मीदवार को प्रोफेसर की भूमिका के लिए अनफिट बनाते हैं। कई वाईस चांसलर ‘इनब्रीडिंग’ या यूनिवर्सिटी के अपने यहां ही डॉक्टरेट पूरी करने वाले छात्रों को प्रोफेसरों के रूप में नियुक्त करने के खिलाफ रहे हैं, क्योंकि यह विकास की संभावनाओं को बाधित करता है। आज देश की अनेक स्टेट यूनिवर्सिटीज के हालात तो और भी ज्यादा खराब हैं। बिहार जैसे राज्यों में तो छात्रों का दावा है कि पढ़ाई के चार-पांच सालों के बाद भी उन्हें डिग्री नहीं मिल पा रही है। इस मामले में मगध यूनिवर्सिटी का उदाहरण सामने ही है।
सुनते हैं कि वहां के वाइस-चांसलर. प्रो.वाइस-चांसलर. रजिस्ट्रार और अन्य शीर्ष अधिकारियों को 30 करोड़ रुपए की वित्तीय धोखाधड़ी के आरोप में गिरफ्तार किए जाने के बाद यूनिवर्सिटी व्यावहारिक रूप से बंद हो गई है। यहां पर पंजीकरण कराने वाले छात्र पिछले पांच सालों से अपनी स्नातक डिग्री मिलने का इंतजार कर रहे हैं। इससे भी बदतर यह है कि इन पांच सालों में छात्रों को शिक्षकों की मौजूदगी वाली किसी कक्षा में बैठने का मौका तक नहीं मिला है। ऐसी हालत और विश्वविद्यालयों की भी हो सकती है। इसकी जांच की जानी चाहिए। बगैर जरूरत, बगैर इंफ्रास्ट्रक्चर, बगैर प्राध्यापकों के फटाफट कॉलेज और विश्वविद्यालयों की घोषणा खोखली वाहवाही के सिवा कुछ नहीं है, बल्कि दीर्घकाल में शिक्षा के पैमानों पर पूरा नहीं उतरते। दक्षिण भारत में देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक मद्रास यूनिवर्सिटी में फैकल्टी के 65 प्रतिशत पद रिक्त हैं। अनेक संस्थान गेस्ट फैकल्टी के भरोसे चल रहे हैं। किसी असिस्टेंट प्रोफेसर को औसतन 16 घंटे पढ़ाना होता है। हालांकि काम बढऩे के कारण शिक्षण समय कभी-कभी सप्ताह में दोगुना हो जाता है। करिकुलम डेवलपमेंट, प्रवेश प्रक्रियाओं और अन्य प्रमुख निर्णयों जैसी गतिविधियों के लिए अक्सर अन्य विभागों के प्रोफेसरों की सेवाएं लेनी पड़ती हैं जो कि संबंधित विषय के विशेषज्ञ नहीं होते हैं। यह कमी न केवल हमारे काम को प्रभावित करती है बल्कि छात्रों की पढ़ाई पर भी प्रतिकूल असर डालती है। ऐसी स्थितियां देश के अनेक विश्वविद्यालयों और कॉलेजों मे पाई जा रही हैं, लेकिन डर के मारे हमारे कच्चे प्राध्यापक मुंह नहीं खोलते हैं और शोषण सहते हैं। याद रहे कि जिस समाज और व्यवस्था में प्राध्यापक संतुष्ट नहीं हैं, वहां राष्ट्र निर्माण का कार्य अपूर्ण रह सकता है। हमारी स्कूल व्यवस्था भी अध्यापकों के शोषण से अछूती नहीं है। आवाज इसलिए नहीं उठती क्योंकि बेरोजगारी है, लाचारी भी है, आगे रोटी का कोई जरिया नहीं है। आज जरूरत है कि हम विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की अच्छी रेगुलर फैकल्टी के जरिये अकादमिक गुणवत्ता बढ़ाएं, एडहोक फैकल्टी को ठीक से पेमेंट की जाए जो कि सरकार द्वारा सुनिश्चित किया जाए।
शिक्षक समाज का आइना हैं। शिक्षकों की झोली से ही राष्ट्रपति भी निकलते हैं और चतुर्वर्गीय कर्मचारी भी। शिक्षक अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन जिम्मेदारी के साथ करते हैं। सीधी प्रोन्नति नहीं होने की वजह से उच्च श्रेणी के पद जैसे रीडर, प्रोफेसर अक्सर खाली रह जाते हैं क्योंकि अन्य विधियों से प्रोन्नत शिक्षकों को तो रीडर या प्रोफेसर के पद मिल जाते हैं किन्तु रीडर एवं प्रोफेसर के पदों के साथ प्रोन्नत शिक्षक के आरंभिक पद उनसे जुड़े होने की वजह से खाली नहीं माने जाते हैं। 2004 के बाद बदली पेंशन नीति के कारण केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को सीधी भर्ती में या तो पद खाली रखने पड़ते हैं या योग्य प्राध्यापक नहीं मिलते। कई राज्य विश्वविद्यालयों में तो प्रोन्नति के हर मामले का निपटारा कोर्ट की मदद से ही होता है और शिक्षक पढऩे-पढ़ाने की ऊर्जा को कोर्ट-कार्यों में लगाते हैं। प्रोन्नति सीधी भर्ती से हो या फिर अन्य विधियों से, यह सहज-सामान्य, सतत एवं वैज्ञानिक होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह भी है कि शोषण का शिकार हमारे सीनियर प्राध्यापक भी होते हैं। भारत अपनी युवा जनसंख्या के बूते पर विश्व पटल पर प्रखरता से उभरना चाहता है तो उसे सबसे पहले उच्च शिक्षा के उत्थान एवं पोषण के लिए लगातार सजग एवं प्रयत्नशील होना होगा। विश्व के श्रेष्ठ उच्च शिक्षा संस्थानों में भारत न केवल विकसित राष्ट्रों से काफी पीछे है, बल्कि कई विकासशील राष्ट्र भी इस दृष्टि से भारत से आगे हैं। भारत के पास जनसंख्या के अनुपात में उच्च शिक्षण संस्थानों की काफी कमी है और साथ ही इनमें शिक्षकों एवं आधारभूत सुविधाओं का नितांत अभाव है। किसी भी तरह का शिक्षक का शोषण असहनीय माना जाना चाहिए और इसे रोकने की जिम्मेवारी सरकार और समाज की है।
-डा. वरिंदर भाटिया