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एक छोटे से कस्बे में पंडित रामानंद शास्त्री रहा करते थे। वे बहुत सदाचारी थे और हर किसी की मदद को हमेशा तैयार रहते थे। आस पास के कई गांवों तक उनकी ख्याति थी। उनका एक पुत्र था रामसेवक। रामसवेक इकलौता होने के कारण बड़ा ही चंचल और नटखट था।
बदनामी और नेकनामीपंडित जी की हार्दिक अभिलाषा थी उनका बेटा विद्या प्राप्त करके उन्हीं की तरह सदाचारी बने और पूजा पंडिताई का काम करे। लेकिन पिता की इच्छा के विपरीत लाड़ला रामसेवक हमेशा शरारतें किया करता था। पंडित रामानंद शास्त्री उसे समझाने का प्रयास करते रहते थे, लेकिन रामसेवक को बुरे कामों में मजा आता था।
अंत में निराश होकर पंडित जी ने रामसेवक को समझाना बंद कर दिया। जब कभी कोई उसके पुत्र की शिकायत लेकर आता तो पंडित जी अपने घर के मुख्य द्धार पर एक कील गाढ़ देते। कुछ ही दिनों में दरवाजा कीलों से भर गया।
एक दिन एक अंधा मुसाफिर रोता हुआ पंडित जी के पास आया और पूछने पर उसने बताया कि उनके बेटे रामसेवक ने उनकी लाठी खींच ली और उनकी पोटली कुएं में फेंक दी। यह सुनकर पंडित को दुख हुआ, उन्होंने दरवाजे की ओर देखा, उसमें केवल एक आखिरी कील के लिए जगह बची थी।
पंडित जी ने उसे अंधे मुसाफिर से माफी मांगकर उसे रवाना किया और कील हथौड़ा लेकर दरवाजे पर जैसे ही कील ठोकनी शुरू की, उसी समय रामसेवक वहां आ पहुंचा। उसने पिता से पूछा, ”पिता जी, आप यह क्या कर रहे हैं?“
पंडित जी उदास मन से बोल उठे, ”बेटा, मैं तेरे किए गए दुष्कर्मों की गिनती कर रहा हूं।“
रामसेवक आश्चर्य से दरवाजे पर लगी कीलों को देखने लगा और फिर पूछ बैठा, ”क्या दरवाजे पर लगी सभी कीलें मेरे कारण लगी हैं?“
इस पर दुखी पंडित जी बोल उठे, ”हां, मेरे नालायक बेटे! ये सब कीलें तुम्हारे किए गए दुष्कर्मों की सूचक है।“
पंडित जी ने रामसेवक को समझाया, ”देखो बेटा! बुरे कर्मों को छोड़कर परोपकार और सत्कर्म करो, ज्ञान विद्या प्राप्त करो, अब भी अवसर है, नहीं तो शेष जीवन पश्चाताप में बीत जाएगा।“
यह सुनकर रामसेवक उदास हो गया। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने मन ही मन प्रण किया कि अब वह अच्छे कर्म करेगा और अपने पिता द्धारा बताए गए मार्ग पर चलेगा।
एकाएक उसके व्यवहार में बदलाव आ गया। उसने लोगों को सताना बंद कर दिया। वह सबकी सहायता करने लगा। उसके इस बदले व्यवहार से पंडित जी खुश रहने लगे। उन्होंने रामसेवक के प्रत्येक अच्छे काम पर दरवाजे पर लगी एक कील निकालनी शुरू कर दी। धीरे धीरे सारी कीलें निकल गई। एक दिन पंडित जी आंगन में बैठकर धूप सेक रहे थे, कि तभी उन्हें किसी ने बताया कि अभी अभी रामसवेक ने एक निर्धन बुढ़िया महिला की सहायता की है। इस सूचना पर प्रसन्न होकर पंडित जी ने जैसे ही अंतिम कील निकाली, उसी वक्त रामसेवक वहां आ पहुंचा। रामसेवक कभी अपने पिता को देखता तो कभी दरवाजे को। उसने कहा, ”पिताजी कील तो सारी निकल गईं पर उनके निशान दरवाजे पर सदा के लिए रह गए।“
इस पर पंडित जी बोले, ”देखो बेटा, बुरे काम छोड़ देने पर भी उसकी बदनामी मिटाई नहीं जा सकती, इसलिए हमें कभी भी बुरे काम नहीं करने चाहिए। मनुष्य द्धारा किए गए छोटे से छोटे बुरे काम की बदनामी उसकी पीछा नहीं छोड़ती, जैसे ऋषि वाल्मीकि का प्रारंभिक जीवन उनके परिचय में हमेशा उल्लिखित किया जाता है।“
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