फतेहपुरउत्तरप्रदेशफ्रेश न्यूज
मोहर्रम की नौवीं तारीख को बड़े ही धूमधाम से लब्बैक या हुसैन की सदाओं के साथ निकले ताजिये
बिन्दकी नगर में मोहर्रम की नौवीं तारीख को लब्बैक या हुसैन की सदाओं के साथ ताजिये निकाले गए जिनमें महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया तो वहीं हुसैन के चाहने वालों ने शर्बत,पानी जैसी तमाम चीजें लंगर के रूप में बांटी गई।
फतेहपुर/बिन्दकी: बिन्दकी नगर में मोहर्रम की नौवीं तारीख को लब्बैक या हुसैन की सदाओं के साथ ताजिये निकाले गए जिनमें महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया तो वहीं हुसैन के चाहने वालों ने शर्बत,पानी जैसी तमाम चीजें लंगर के रूप में बांटी गई। आखिर क्यों मनाते हैं मुहर्रम,क्या हुआ था कर्बला की जंग में इमाम हुसैन के साथ ? इस्लाम धर्म के नए साल की शुरुआत मोहर्रम महीने से होती है,यानी कि मुहर्रम का महीना इस्लामी साल का पहला महीना होता है, इसे हिजरी भी कहा जाता है। हिजरी सन् की शुरुआत इसी महीने से होती है,यही नहीं मुहर्रम इस्लाम के चार पवित्र महीनों में से एक है। हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मातम का पर्व मोहर्रम मनाया जाता है। इस दिन हजरत इमाम हुसैन के फॉलोअर्स खुद को तकलीफ देकर इमाम हुसैन की याद में मातम मनाते हैं।
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम ?
इमाम हुसैन और उनके फॉलोअर्स की शहादत की याद में दुनियाभर में शिया मुस्लिम मुहर्रम मनाते हैं। इमाम हुसैन, पैगंबर मोहम्मद के नाती थे,जो कर्बला की जंग में शहीद माने हुए थे। मुहर्रम क्यों मनाया जाता है, इसके लिए हमें तारीख के उस हिस्से में जाना होगा, जब इस्लाम में खिलाफत यानी खलीफा का राज था। ये खलीफा पूरी दुनिया के मुसलमानों का प्रमुख नेता होता था। पैगंबर साहब की वफात के बाद चार खलीफा चुने गए थे। लोग आपस में तय करके इसका चुनाव करते थे।
जब आया घोर अत्याचार का दौर-
इसके लगभग 50 साल बाद इस्लामी दुनिया में घोर अत्याचार का दौर आया, मक्का से दूर सीरिया के गर्वनर यजीद ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया, उसके काम करने का तरीका बादशाहों जैसा था,जो उस समय इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ था,तब इमाम हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। इससे नाराज यजीद ने अपने राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा, ‘तुम हुसैन को बुलाकर मेरे आदेश का पालन करने को कहो, अगर वो नहीं माने तो उसका सिर काटकर मेरे पास भेजा जाए।’
राज्यपाल ने हुसैन को राजभवन बुलाया और उनको यजीद का फरमान सुनाया। इस पर हुसैन ने कहा- ‘मैं एक व्याभिचारी,भ्रष्टाचारी और खुदा रसूल को न मानने वाले यजीद का आदेश नहीं मान सकता।’ इसके बाद इमाम हुसैन मक्का शरीफ पहुंचे,ताकि हज पूरा कर सकें। वहां यजीद ने अपने सैनिकों को यात्री बनाकर हुसैन का कत्ल करने के लिए भेजा। इस बात का पता हुसैन को चल गया लेकिन मक्का ऐसा पवित्र स्थान है,जहां किसी की भी हत्या हराम है।
इसलिए उन्होंने खून-खराबे से बचने के लिए हुसैन ने हज के बजाय उसकी छोटी प्रथा उमरा करके परिवार सहित इराक चले आये। मुहर्रम महीने की दो तारीख 61 हिजरी को हुसैन अपने परिवार के साथ कर्बला में थे,नौ तारीख तक यजीद की सेना को सही रास्ते पर लाने के लिए समझाइश देते रहे, लेकिन वो नहीं माने। इसके बाद हुसैन ने कहा- ‘तुम मुझे एक रात की मोहलत दो..ताकि मैं अल्लाह की इबादत कर सकूं’ इस रात को ‘आशुरा की रात’ कहा जाता है, अगले दिन जंग में हुसैन के 72 फॉलोअर्स मारे गए।
तब सिर्फ हुसैन अकेले रह गए थे, लेकिन तभी अचानक खेमे में शोर सुना,उनका छह महीने का बेटा अली असगर प्यास से बेहाल था। हुसैन उसे हाथों में उठाकर मैदान-ए-कर्बला में ले आए। उन्होंने यजीद की फौज से बेटे को पानी पिलाने के लिए कहा, लेकिन फौज नहीं मानी और बेटे ने हुसैन की हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन का भी कत्ल कर दिया। हुसैन ने इस्लाम और मानवता के लिए अपनी जान कुर्बान की थी। इसलिए इसे आशुरा यानी मातम का दिन कहा जाता है, इराक की राजधानी बगदाद के दक्षिण पश्चिम के कर्बला में इमाम हुसैन और इमाम अब्बास के तीर्थ स्थल हैं।