शिक्षक को शिक्षक ही रहने दो मार्केटर न समझो
पिछले तीस वर्षों में शिक्षा के भीतर एक खतरनाक संक्रमण गहराई से फैल गया है धन के बदले परिणाम की मानसिकता। यह वही दृष्टिकोण है जो शिक्षा को एक मानवीय प्रक्रिया के बजाय सेवा और शिक्षक को कर्मचारी बना देता है। जब किसी देश की शिक्षा नीति में यह प्रश्न प्रमुख हो जाता है

कानपुर देहात। पिछले तीस वर्षों में शिक्षा के भीतर एक खतरनाक संक्रमण गहराई से फैल गया है धन के बदले परिणाम की मानसिकता। यह वही दृष्टिकोण है जो शिक्षा को एक मानवीय प्रक्रिया के बजाय सेवा और शिक्षक को कर्मचारी बना देता है। जब किसी देश की शिक्षा नीति में यह प्रश्न प्रमुख हो जाता है कि इतना खर्च करने पर क्या मिला? तो समझ लीजिए कि उसने शिक्षा को ज्ञान नहीं सौदा मान लिया है। दरअसल यह सोच केवल शिक्षण व्यवस्था को नहीं समाज की आत्मा को भी विकृत करती है। शिक्षा में व्यय धन नहीं, निवेश होता है और उसका प्रतिफल तुरंत नहीं पीढ़ियों बाद दिखाई देता है लेकिन आज के नीति-निर्माता और आंकड़ा प्रेमी समाज शिक्षा को सुपरमार्केट के उत्पाद की तरह आंक रहे हैं जहाँ हर चीज का “रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट” पूछा जाता है। यह विचार गहराई में जाकर शिक्षक की आत्मा को कुचलता है। जब शिक्षक के काम को आउटपुट में मापा जाता है तो उसके भीतर का कलाकार, विचारक और मार्गदर्शक मरने लगता है। रचनात्मकता तब पनपती है जब शिक्षक स्वतंत्र होता है अपने तरीके से पढ़ाने, समझाने, प्रेरित करने के लिए लेकिन अब उससे हर क्षण यह पूछा जाता है कि कितने प्रतिशत बच्चे लक्ष्य तक पहुँचे और कौन सा सूचक बेहतर हुआ? यह प्रश्न शिक्षा को यांत्रिक बना देता है और शिक्षक को मशीन। यह दृष्टिकोण यह भी भूल जाता है कि शिक्षा कोई फैक्ट्री नहीं है जहाँ इनपुट और आउटपुट का सीधा अनुपात हो। यहाँ मानव मस्तिष्क, भावनाएँ और संस्कार हैं जो डेटा शीट में फिट नहीं होते लेकिन अब शिक्षा को इतनी गहराई तक मापा जाने लगा है कि उसकी आत्मा अदृश्य हो गई है। इस दृष्टिकोण का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि शिक्षक अब सृजनकर्ता नहीं प्रदर्शनकर्ता बन गया है। उसे अपने बच्चों की समझ, जिज्ञासा और संघर्ष नहीं बल्कि रिपोर्ट में दिखने वाले अंक और ग्राफ महत्वपूर्ण लगने लगे हैं। जब व्यवस्था यह कहती है कि तुम्हें जो वेतन मिलता है उसके अनुरूप परिणाम दो तो वह यह भूल जाती है कि शिक्षा का परिणाम एक परीक्षा का स्कोर नहीं बल्कि एक सोचने वाले नागरिक का निर्माण है और यह भी एक क्रूर विडंबना है कि जो शिक्षक अपनी पूरी ऊर्जा बच्चों के साथ बिताना चाहता है उसे बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि वह काम कर रहा है मानो उसकी नीयत पर संदेह है। इस संदेह की संस्कृति ने शिक्षा को अविश्वास के दलदल में धकेल दिया है।
अब आवश्यकता है दृष्टिकोण बदलने की। शिक्षा का मूल्यांकन धन और आंकड़ों से नहीं, उस सोच से होना चाहिए जो वह समाज में पैदा करती है। शिक्षा में व्यय का मूल्य तब तक समझ में नहीं आएगा जब तक हम मानव निर्माण को आर्थिक उत्पादकता से अलग करना नहीं सीखते। अगर यही सोच जारी रही तो आने वाली पीढ़ियाँ शायद बहुत जानकार तो होंगी पर समझदार नहीं क्योंकि उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक स्वतंत्र नहीं होंगे, बस जवाबदेह मशीनें होंगे और जिस दिन शिक्षा से संवेदना और स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी उस दिन विद्यालय भले ही स्मार्ट बन जाएँ पर मनुष्य मूर्ख ही रह जाएगा।
Discover more from अमन यात्रा
Subscribe to get the latest posts sent to your email.