शिक्षा के निम्न स्तर के लिए आखिर शिक्षक ही क्यों जिम्मेदार
शिक्षक हर किसी व्यक्ति के जीवन में पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं। वर्तमान में देश के शिक्षकों पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर सुंदर भारत के निर्माण की जिम्मेदारी है। साथ ही हैं बहुत सारी चुनौतियां और इन चुनौतियों से निपटते हुए शिक्षा के स्तर को बेहतर करना है। सार्वजनिक क्षेत्र की स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर अक्सर चिंता जतायी जाती है। ऐसी रिपोर्ट भी आती रहती है कि सरकारी स्कूलों में पांचवीं-आठवीं के बच्चों को दूसरी-तीसरी के स्तर का ज्ञान भी नहीं होता
कानपुर देहात। शिक्षक हर किसी व्यक्ति के जीवन में पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं। वर्तमान में देश के शिक्षकों पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर सुंदर भारत के निर्माण की जिम्मेदारी है। साथ ही हैं बहुत सारी चुनौतियां और इन चुनौतियों से निपटते हुए शिक्षा के स्तर को बेहतर करना है। सार्वजनिक क्षेत्र की स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर अक्सर चिंता जतायी जाती है। ऐसी रिपोर्ट भी आती रहती है कि सरकारी स्कूलों में पांचवीं-आठवीं के बच्चों को दूसरी-तीसरी के स्तर का ज्ञान भी नहीं होता। पहली नजर में बहुत से लोग इसके लिए सिर्फ सरकारी शिक्षकों को दोषी मान लेते हैं लेकिन हकीकत यह है कि शिक्षकों के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं। विकसित देशों से जब आप शिक्षा की तुलना करते हैं तो यह नहीं देखते कि वहां शिक्षक केवल पढ़ाने का काम करते हैं, उनके जिम्में कोई अन्य काम नहीं होता और यहां पर सभी विभागों के कार्य शिक्षकों से ही करवाए जाते हैं।
इस स्थिति के लिए सिर्फ शिक्षक (प्राइमरी टीचर) जिम्मेवार नहीं हैं।स्कूली शिक्षा की इस हालत के लिए सिर्फ शिक्षकों पर ही कोई दोष नहीं मढ़ा जाना चाहिए। शिक्षक तो हमारी पूरी शिक्षा-व्यवस्था का एक हिस्सा मात्र है न कि पूरी शिक्षा-व्यवस्था। प्राथमिक शिक्षा की इस दुर्दशा के लिए कई अन्य तथ्य भी जिम्मेवार-जवाबदेह हैं, इस बात को हम सभी को समझना होगा। 10 मिनट लेट हो जाने पर मास्टरों पर ऊँगली उठाने वाले लोग यह बताएं कि किस अधिकारी के कार्यालय में जाने पर आपको उसके आने का घंटो इन्तजार नहीं करना पड़ता ? किस कार्यालय में जाने के बाद आपको यह सुनने को नही मिलता कि साहब आज नहीं हैं ? हफ्तों इन्तजार करने के बाद जब साहब के किसी दिन आने की सूचना मिलती है तो आप समय से कार्यालय पहुँच जाते हैं और 12 बजे तक साहब के आने का इंतजार करते हैं, जब साहब गाड़ी से उतरते हैं तो रस्ता छोड़कर झुककर हाथ जोड़कर उनके सम्मान में अपना सम्मान गिरवी रखते हैं फिर साहब आसन ग्रहण करते हैं और आप अपनी बारी का इंतजार। बारी आने पर हाथ जोड़कर जी सर, जी हुजूर कहते हुए काँपते हाथों से अपनी फरियाद सुनाते हैं कि साहब कुछ दया कर दें।
आधी अधूरी फरियाद सुनने के बाद साहब आपको जाने का हुक्म देते हैं और लौटते समय आप हाथ जोड़कर 3 बार झुक झुककर सलामी ठोंकते हैं इस उम्मीद में कि साहब एक बार आपकी सलामी स्वीकार कर लें लेकिन साहब कोई जवाब नहीं देते और उनका अर्दली आपको धकियाते हुए कहता है कि चलिये अब बाहर निकलिये। इतनी दीनता दिखाने के बाद और इतना सम्मान पाने के बाद आप खुशी-खुशी घर जाते हैं कि आज साहब मिल तो गये और उनसे बात हो गयी। यही लोग परिषदीय स्कूलों में आकर शेर बनते हैं और उस मास्टर के सामने अपना पराक्रम दिखाते हैं जो उनके बच्चों का भविष्य संवारने के लिये गेंहू तक पिसवाकर उनके बच्चों को रोटी खिलाता है। हाथ पकड़कर लिखना सिखाता है। डर से आंसू निकलने पर आपके बच्चे को गोदी में बैठाकर आंसू तक पोछता है। गली में जुआ खेलते दिख जाने पर आपके बच्चे को डाँटता भी है और ऐसे शिक्षक पर आपको धौंस जमाते हुए तनिक भी लज्जा नहीं आती। बच्चे को डाँट देने पर आप स्कूल में सवाल करने चले आते हैं कि मास्टर तुमने मेरे बच्चे को डाँटा क्यों ? भले ही आप किसी पुलिस वाले से अक्सर बिना वजह डाँट खाते रहते हों।
उनसे तो बिन गलती लाठी खाने पर भी आप माफी मांगने लगते हैं किन्तु मास्टर द्वारा अनुशासन बनाये रखने के लिए दी गयी डॉट पर भी आपको जवाब चाहिए। आप ये भूल जाते हैं कि जब आप अपने बच्चे का रोना सुनकर उसकी पैरवी करने स्कूल आते हैं तो उसी समय आपके बच्चे के मन से अनुशासन के नियमों का भय निकल जाता है और वह और भी अनुशासनहीन हो जाता है। उसके मन से दंड का भय निकल जाता है और वह और भी उद्दंड हो जाता है। वह ये सोचने लगता है कि गलती करने पर उसके पापा उसका पक्ष लेंगे इसलिए गुरुजी से डरने की जरूरत नहीं फिर तो वह स्कूल का कोई भी कार्य न करेगा। आप अपने बच्चे की पढ़ाई चाहते हैं या उसकी स्वच्छन्दता ?कानून का भय यदि समाप्त हो जाय तो हर कोई कानून का उल्लंघन करने लगेगा ठीक उसी प्रकार यदि अनुशासन का भय खत्म हो जाय तो बच्चा स्वच्छन्द हो जाएगा। विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी।
ये हमारा देश का दुर्भाग्य है कि बेसिक में पढ़ने वाले कई बच्चों के माता-पिता अनुशासन के महत्त्व से बिलकुल अनजान हैं और हर दंड को नकारात्मक ही लेते हैं जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है भय बिन होय न प्रीति। भय बिना अनुशासन भी सम्भव नहीं है और बिन अनुशासन शिक्षक छात्र सम्बन्धों की कल्पना बेमानी सी होगी। आप अपने परिवार को ही ले लीजिये क्या आप बच्चे की गलती पर उसे दंड नहीं देते ? समझाने का असर एक सीमा तक ही होता है वो भी हर एक पर असर भी नहीं करता। दंड का आशय सदैव उत्पीड़न नहीं होता, विद्यालय में तो हरगिज नहीं। विद्यालय में दंड का आशय अनुशासन स्थापित करने से होता है। यहाँ दंड का आशय पिटाई से न लगाएँ। शिक्षक को सदैव खुशी होती है जब उसका कोई शिष्य उससे भी आगे निकलता है इसी उद्देश्य से शिक्षक विद्यार्थी को शिक्षा भी देता है कि उसका प्रत्येक शिष्य सफल हो इसलिए आप शिक्षक के कार्यों का छिद्रान्वेषण न करें और न ही उस पर शंका या आरोप प्रत्यारोप करें।