विद्यालय का वो पहला दिन आज भी आँखों के सामने कुछ इस तरह आ जाता है, मानो कल की ही बात हो। मैं उस ख़ाली बरामदे में क्या ढूँढ़ रही थी। वीरान सा स्कूल जहाँ न बच्चों का शोर न ही कोई पढ़ाई का माहौल। इधर उधर से झाँकते कुछ बालक। हाँ, सिर्फ़ बालक थे। काफ़ी तलाशने के बाद भी वहाँ कोई बालिका नहीं दिखी। बहुत देर के बाद नन्ही आसमा जिसकी माता शायद विद्यालय में रसोइया थी।उसके साथ खड़ी मुझे देख रही थी। बुलाकर पूछने पर पता चला वो भी यहाँ नहीं पढ़ती, कहीं और एडमीशन था। माँ के साथ कभी-कभी आ जाती थी।
विद्यालय परिसर में चारों ओर नज़र दौड़ाती तो बाहरी लड़कों का खेलना, आना-जाना देख कर समझ गयी कि यहाँ का परिसर अराजक तत्वों के हाथों में है। तभी रसोइया अनीता बड़े ही बेमन से बच्चों को ज़मीन में बैठाकर खाना देने लगी। ये वही गिनती के आठ-दस बालक जिनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि यही उनकी दिनचर्या है। बिना बालिकाओं का खाली-खाली विद्यालय मुझे किसी तरह भी रास नहीं आ रहा था। इधर-उधर नज़र दौड़ाई कुछ दूर पास के घरों की छत पर कुछ बच्चियाँ इक्कड़ -दुक्कड़ खेल रही थी। इशारे से बुलाया तो डरते-डरते एक-दो नीचे आयीं। बड़े प्यार और दुलार से उनसे बात की तो पता चला कि यहाँ न तो अच्छी पढ़ाई होती है और न ही कोई खेल खिलाया जाता। और न ही हमारी कोई दोस्त यहाँ पढ़ती। तभी मैं बिना सोचे बोल पड़ी, “अच्छा अगर खेल खिलाया जाने लगे तो तुम सब आओगी”? पीछे से आंखों में गहरा काजल लगाये चांदनी सहमति जताते बोली कि हमारे दोस्त खुश्बू , नेहा , आरज़ू वो भी आयेंगी तो हम भी।
मैं बस निकल पड़ी रसोइया के साथ। तो देखा काफ़ी घरों में एक जैसी समस्या। पहली ड्रॉपआउट बच्चियाँ जो घर के कामों में हाथ बटाने की वजह से नहीं आ पा रहीं थी। दूसरी पर्दा प्रथा और अज्ञानता। मैं बस दिन रात स्कूल को बदलने में लग गयी। बालिकाओं के लिये शौचालय सही करवाया। खेलने के लिए ढेरों सामान लेकर आयी। डोरीमोन, शुज़ुका, शिनशान, नोबिता, मोटू-पतलू सभी स्कूल में सज गये।
एक दिन स्कूटी से घर जाते वक़्त रास्ते में एक प्यारी सी बच्ची,जिसने अपना नाम सना बताया, अपने दो छोटे भाई-बहनों के साथ मिली। गाड़ी रोककर बात की तो पता चला कि दो साल से ड्रॉपआउट है। खेतों में माँ के साथ काम कराने जाती है। मुझे बड़ा तरस आया उस बच्ची पर। उससे बातें करके समझ गयी कि वो पढ़ाई करना चाहती है और बड़ी ज़िम्मेदार भी है। तभी दोनों भाई-बहनों को खुद खेलने की उम्र में गोद में सम्भाले है।
अगले दिन सना की माँ से मिलने गयी। उनकी बातों से समझ गयी कि घर में पिताजी की बड़ी दहशत है। माँ उनकी मर्ज़ी के बिना सना को चाह कर भी स्कूल नहीं भेज पा रही थीं। मेरे काफ़ी समझाने पर छोटे भाई-बहनों का एडमीशन करवाने आयीं। पास बैठा कर उनको काफ़ी देर तक समझाती रही। समझ तो रही थी पर शौहर से मजबूर थीं। अगले दिन सना अपने भाई-बहनों को छोड़ने गेट तक आयी। मेरे बुलाने पर अंदर आ गयी। स्कूल के बाक़ी बच्चे ट्रेन-ट्रेन खेल रहे थे। सना को भी दिल किया। मैंने बड़े प्यार से उसे बुलाकर खेल में शामिल कर लिया। अब वो बच्चों के साथ खेलने आ जाया करती। पर थोड़ी देर में ही जाने को कहती। फिर एक बार कई दिनों तक सना स्कूल में नहीं दिखी। उसके भाई-बहनों से पता चला कि वो यहाँ आकर खेलती थी तभी उसके पापा ने उसे मारा है। बस, अब मुझ से नहीं रुका गया। उनके पिता जी के पास ढूंढ़ते-ढूंढते उनकी दुकान पर पहुँची और काफ़ी समझाया। कुछ देर मेरी सुनने के बाद वही जवाब ” हम इनका पढ़ाई , इनका कमाई कराई , ई जाकर अपना सारा कमाई ससुराल दे दें । काफ़ी प्रयासों के बाद सना स्कूल आने लगी। उसमें काफ़ी शौक़ था। पढ़ाई, डांस, खेलकूद में वो आगे रहती।
घर से काफ़ी रुकावटों के बाद भी ब्लॉक और जनपद पर विजयी हो जाती पर मंडल तक जाने की घर से इजाज़त न मिल पाती। सना सबसे ज़्यादा नेहा के साथ उठती बैठती। नेहा जो स्कूल के सामने के घर की छत पर खड़ी बड़ी हसरत से मुझे देखती। बड़े प्रयासों से उसका स्कूल आना शुरू करवा पायी थी। माँ की बीमारी और पापा का पुराने ख्यालों का होना नेहा को स्कूल से ड्रापआउट करवा चुका था। याद है उनके पिता के वो कठोर शब्द जब उनसे नेहा के लिये बात करने गयी तो उनका जवाब था कि वह काम चोर है। काम चोरी की वजह से स्कूल भाग भाग जाती है। बेचारी नेहा खाना बना , बर्तन मांज कर कुछ देर से स्कूल आ जाती। उस मासूम बच्ची पर ज़िम्मेदारियों का बोझ देख मैं उसको मजबूत बनाना चाहती थी। नेहा सना और बाक़ी बच्चियों को पढ़ने और आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करती। कविता, कहानी, लेख सुनाती। लाइब्रेरी में उन्हें पढ़ाती। योग, एरोबिक टेडी डांस, लेजिम, डंबल, पीटी। इसके साथ ही साथ ही ढोलक, लोकगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सिलाई-कढ़ाई प्रशिक्षण भी। बच्चों के चेहरों पर मुस्कान बिखरने लगी थी।
विद्यालय का वार्षिकोत्सव क़रीब था। नेहा डांस में सबसे अच्छी थी। हम सरस्वती वंदना की तैयारी में लगे थे। एक डांस टीचर भी उन्हें सिखाने के लिये लगा लिया था। बच्चे काफ़ी अच्छा कर रहे थे। नेहा में आत्म-विश्वास जाग रहा था। उसी बीच किसी ने उसके पिता जी से शिकायत कर दी क्योंकि वो डांस के खिलाफ़ थे। नेहा पर उनकी सख़्ती शुरू हो गयी। उत्सव को कुछ ही दिन तो बचे थे और नेहा ने स्कूल आना बंद कर दिया। हमारा तो प्रोग्राम ही नेहा के इर्द गिर्द था। अब क्या करूँ? कैसे उसे बुलाऊँ? सना और नेहा जैसी काफ़ी बेटियों के अभिभावक उन्हें घर में कैद किये थे। इन्हें समझाना काफ़ी मुश्किल। जब सोच ही यही कि सरकारी स्कूल है तो पढ़ा रहे हैं। डांस-वांस कुछ न कराओ इनका। शादी करके खाना ही तो पकावे का है। नेहा को घर बुलाने भेजा तो पता चला उसकी माँ अस्पताल में हैं। नेहा का रोल अब ख़ुश्बू को दिया जा चुका था। उसके आने की उम्मीद कम थी। तभी पता चला अब्दुल हफ़ीज़ नेहा के पिताजी नेहा की माँ के ऑपरेशन के लिये इस बात पर लड़ गये कि वो ऑपरेशन लेडी डॉक्टर से ही करवाना चाहते है। जो उस अस्पताल में नहीं थी और इतना पैसा भी नहीं था कि दूसरे अस्पताल में जा सकें। बस फिर क्या, मैं स्कूल से निकली। नेहा को उसके घर से बुला स्कूटी पर बैठा कर अस्पताल आ गई। नेहा के पिता जी परेशान इधर-उधर घूम रहे थे। नेहा माँ के पास जाकर लिपट गयी। मैं बाहर से कुछ फल लेकर उनके पास गई और बोली, “भाई साहब! अगर आपकी ही तरह सब अपनी बेटियों को घर में बैठा लें तो किसी स्कूल में लेडी टीचर, किसी अस्पताल में लेडी डॉक्टर या नर्स मिल पायेगी क्या”? मेरी बात सुनकर उनकी गर्दन झुक गई। उनकी आँखों मे पछतावा था। नेहा का हाथ मेरे हाथ मे पकड़ाते हुए बोले, “आप सही हो मैडम जी। आपने मेरी आँखें खोल दी। अब मेरी नेहा पढ़ेगी और डॉक्टर भी बनेगी। बस आप साथ देना।” यह सुनकर नेहा मुझसे लिपट गई। उसकी मुट्ठी में एक सपना आकार लेने लगा। उसे स्कूल आता देखकर अन्य लड़कियां पढ़ने के लिए स्कूल आने लगीं।
सम्प्रति : आसिया फ़ारूकी शिक्षिका, (राज्य अध्यापक पुरस्कार प्राप्त)। प्राथमिक विद्यालय अस्ती, नगर फ़तेहपुर।