कानपुर देहात। शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव और सुधार के लिए केवल नीतियों या योजनाओं का निर्माण ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि इसके पीछे गहरा मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी होना चाहिए। विश्व के विकसित देशों में जब शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम या योजनाएं बनती हैं तो विशेषज्ञों की टीमें वर्षों तक शोध करती हैं। वे बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास पर उन योजनाओं के प्रभावों का गहन अध्ययन करती हैं। इस शोध में बच्चों की सोच, व्यवहार और सामाजिक-भावनात्मक विकास को समझने के लिए व्यापक स्तर पर सेम्पलिंग की जाती है। मनोविज्ञान और शैक्षिक विज्ञान के मापदंडों पर आधारित यह अध्ययन शिक्षकों, छात्रों और उनके परिवारों के अनुभवों को भी शामिल करता है लेकिन भारत जैसे देशों में, जहां शिक्षा का प्रसार एक महत्वपूर्ण मुद्दा है वहां अक्सर इन मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक दृष्टिकोणों की उपेक्षा की जाती है। यहाँ ऊपरी स्तर पर बैठे लोग आदेश देते हैं और निचले स्तर पर शिक्षक उन आदेशों का पालन करने को बाध्य होते हैं। यह आदेश किसी ठोस शोध या मनोवैज्ञानिक आधार पर नहीं बल्कि तात्कालिक राजनीतिक या प्रशासनिक लाभ के लिए होते हैं। बिना किसी शोध या अध्ययन के नई योजनाएं और सुझाव शिक्षकों पर लाद दिए जाते हैं। ऊपर से नीचे तक हर व्यक्ति अपनी-अपनी सोच और अनुभव के आधार पर शिक्षकों को आदेश और सलाह देने में लग जाता है। मानो शिक्षा का उद्देश्य केवल कागजी आंकड़ों को सुधारना हो।विश्व में बड़े बदलावों के पीछे वहां की सरकारों और शिक्षा नीतिकारों की एक स्पष्ट सोच होती है, जिसमें शिक्षकों की राय, विशेषज्ञों के विचार और समाज के तमाम तबकों की जरूरतों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाई जाती हैं। हमारे देश में शिक्षा नीतियों के निर्माण में बच्चों और शिक्षकों के साथ सीधा संवाद करने के बजाय ऊपर से आदेश जारी कर दिए जाते हैं।
शिक्षक तो बच्चों के निकटतम होते हैं और वे ही सबसे अच्छी तरह समझ सकते हैं कि किस तरह के बदलाव बच्चों पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालेंगे फिर भी शिक्षकों की राय को अनदेखा कर दिया जाता है। बच्चों का बाल मनोविज्ञान बेहद संवेदनशील होता है और कोई भी बदलाव सीधे तौर पर उनके मानसिक विकास को प्रभावित करता है। यदि मनोवैज्ञानिक आधार पर नवाचारों का चयन नहीं किया जाता तो बच्चों के मानसिक विकास में कमी आ सकती है और उनके सीखने की क्षमता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में आवश्यकता है कि नीतिकार और प्रशासनिक अधिकारी शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान की भूमिका को समझें और शिक्षकों को सही दिशा-निर्देश और सहयोग प्रदान करें। किसी भी नवाचार की सफलता तभी संभव है जब शिक्षक उसे समझकर आत्मसात कर पाएं और बच्चों की जरूरतों के अनुसार उसे ढाल सकें।
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