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डाक्टरों और दवा कंपनियों के गठजोड़ से टूटी मरीजों की कमर

केंद्र सरकार ने लोगों को सस्ते रेट में दवा उपलब्ध कराने को हृदय रोग, कैंसर, मिर्गी, टीबी समेत कई बीमारियों की दवाओं को ड्रग प्राइज कंट्रोल आर्डर (डीपीसीओ) में भले ही शामिल किया हो लेकिन डाक्टरों एवं दवा कंपनियों के गठजोड़ के चलते मरीजों को सस्ती दवाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।

Story Highlights
  • फार्मूूले में बदलाव कर महंगे दामों में बेंच रहे हैं दवाइयां
  • हर मरीज को लिखते हैं एक से दो मोनोपोली दवाइयां

लखनऊ/ कानपुर देहात- केंद्र सरकार ने लोगों को सस्ते रेट में दवा उपलब्ध कराने को हृदय रोग, कैंसर, मिर्गी, टीबी समेत कई बीमारियों की दवाओं को ड्रग प्राइज कंट्रोल आर्डर (डीपीसीओ) में भले ही शामिल किया हो लेकिन डाक्टरों एवं दवा कंपनियों के गठजोड़ के चलते मरीजों को सस्ती दवाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। शुरूआती दौर में सरकार के आदेश से दवा कंपनियों की मनमानी पर अंकुश तो लगा लेकिन बाद में दवा कंपनियों ने फार्मूले में बदलाव कर नया खेल शुरू कर दिया। इस खेल में फेमस डॉक्टरों को भी शामिल किया गया ताकि मनमाने दामों में दवाएं बेंची जा सकें। दवा कंपनियों ने सरकारी बंदिश से आजाद होने का नया तरीका ढूंढ निकाला। कंपनियों ने डीपीसीओ में शामिल दवाओं के साल्ट के साथ दवा बनाने में ऐसे साल्ट इस्तेमाल करने शुरू कर दिए जो डीपीसीओ के दायरे से बाहर हैं। इस तरह उनकी दवा मूल्य नियंत्रण दायरे से बाहर हो गई। बाजार में एक ही फार्मूले की दवाएं अलग-अलग रेट पर मौजूद हैं। खास बात यह है कि अंजान मरीज भी वहीं दवाएं खरीदते हैं जो डॉक्टर लिखते हैं। दवाओं के लिखने के पीछे बड़े पैमाने पर कमीशन का खेल होता है। इस खेल में सरकारी अस्पतालों के दिग्गज डाक्टरों के अलावा नर्सिंग होम के ख्याति प्राप्त डॉक्टर बड़े पैमाने पर शामिल हैं। डॉक्टरों द्वारा लिखी गई दवाओं को खरीदने के लिए मरीजों के तीमारदार विवश हैं।

जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज कानपुर के पूर्व छात्र राजेश बाबू कटियार का कहना है कि डॉक्टर्स के लिए इलाज अब सेवाभाव नहीं रह गया है, मरीज इनके लिए महज क्लाइंट रह गए हैं। ऐसा नहीं है कि सभी डॉक्टर्स इस पवित्र पेशे को कमाई के लिए कलंकित कर रहे हैं लेकिन ऐसे डॉक्टर्स की कमी भी नहीं है जो अपना कारोबार चमकाने के लिए मरीज को चारों तरफ से लूटते हैं। सर्वप्रथम मोटी फीस लेते हैं, फिर जांच के नाम पर पैथोलॉजी से मोटा कमीशन लेते हैं उसके बाद दवाएं भी मोनोपॉली लिखते हैं जिसमें 70-80 फीसदी कमीशन मिलता है। बता दें

डीपीसीओ में दर्ज दवाओं के दाम सरकार के नियंत्रण में होते हैं। इन दवाओं के दाम बिना अनुमति नहीं बढ़ाए जा सकते। इस कारण दवा कंपनियों द्वारा इन दवाओं को मनमाने दामों पर बेचने के लिए इनके फार्मूले में बदलाव कर नई दवा के तौर पर लांच कर दिया जाता है। इसमें ख्याति प्राप्त डॉक्टरों का पूर्ण सहयोग होता है कई डॉक्टर इन कंपनियों से डील करके हाई मार्जन में मोनोपोली दवाओं का निर्माण करवाते हैं। सरकार का इन कॉबिनेशन वाली दवाओं पर नियंत्रण नहीं होता है। यह दबाए गुणवत्ता में भी खरी नहीं उतरती हैं लेकिन डॉक्टर द्वारा लिखे जाने की वजह से मरीज के तीमारदार वही दबाए खरीदते हैं।

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Author: aman yatra


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