सम्पादकीय
संवेदनहीन होता समाज : कन्नौज की तड़पती 12 साल की बच्ची
कन्नौज के एक सरकारी गेस्ट हाउस के अहाते में दर्द से तड़पती, मदद के लिए हाथ थाम लेने की गुहार लगाती 12 साल की बच्ची और उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाय मोबाइल से उसकी तस्वीरें उतारती आखिर कब तक समाज संवेदनहीन रहेगा आखिर क्यों नजर नही आया उसका दर्द.
“कन्नौज के एक सरकारी गेस्ट हाउस के अहाते में दर्द से तड़पती, मदद के लिए हाथ थाम लेने की गुहार लगाती 12 साल की बच्ची और उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाय मोबाइल से उसकी तस्वीरें उतारती आखिर कब तक समाज संवेदनहीन रहेगा आखिर क्यों नजर नही आया उसका दर्द”
कन्नौज के एक सरकारी गेस्ट हाउस के अहाते में दर्द से तड़पती, मदद के लिए हाथ थाम लेने की गुहार लगाती 12 साल की बच्ची और उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाय मोबाइल से उसकी तस्वीरें उतारती भीड़ का वायरल वीडियो जहां शर्मसार करने वाला है, तो वहीं स्थानीय चौकी प्रभारी मनोज पांडेय का उसे गोद में लेकर अस्पताल की ओर दौड़ पड़ने का दृश्य यह भरोसा देता है कि अभी सब कुछ रीता नहीं है। इस पुलिस अधिकारी की जितनी भी सराहना की जाए, कम है। प्रारंभिक सूचना के मुताबिक, बच्ची इतवार शाम बाजार से गुल्लक खरीदने निकली थी, मगर देर रात तक घर नहीं पहुंची, तो परिजनों ने उसकी तलाश शुरू की। बच्ची की हालत गंभीर है, और उसे कानपुर इलाज के लिए ले जाया गया है। इस घटना की तफसील तो मुकम्मल पुलिस जांच से पता चल सकेगी, लेकिन इसे इंसानियत की कसौटी पर परखे जाने की जरूरत है।
यह पहली बार नहीं है, जब ऐसा वीडियो सामने आया है। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है और एक सभ्य समाज के तौर पर यह हमारे लिए चिंता की बात होनी चाहिए। एक दौर था, जब सड़क दुर्घटनाओं में लोग किसी की मदद से कतराते थे कि पुलिस के ‘लफड़े’ में कौन पड़े? इस सोच को हमारी नागरिक व्यवस्था पर एक नकारात्मक टिप्पणी के रूप में लिया जाता था। मगर हाल के वर्षों में सड़क-सुरक्षा संबंधी कायदे-कानूनों में सुधार और सरकारों की प्रोत्साहन-योजनाओं से लोग अब मदद के लिए आगे आने लगे हैं। यकीनन, इस बदलाव से अनगिनत लोगों की जान बची है। मगर स्मार्टफोन और सोशल मीडिया की बढ़ती लोकप्रियता ने किसी आशंका व भयवश मदद से गुरेज को दूसरों की पीड़ा में आनंद की तलाश तक पहुंचा दिया है। आखिर एक तड़पती बेबस बच्ची का वीडियो बनाने या उसकी तस्वीर उतारने के पीछे और क्या मकसद हो सकता है?
निस्संदेह, मानव-सभ्यता के विकास में प्रौद्योगिकी ने अहम रोल निभाया है, मगर मनुष्यता का सफर हमने मानवीय मूल्यों के सहारे ही तय किया है। इसीलिए जब कभी कोई इन मूल्यों से दूर जाते दिखता है, तो चिंता होती है। होनी चाहिए। दुनिया का कोई भी समाज सिर्फ तंत्र और सरकार के भरोसे आगे नहीं बढ़ सकता, उसे अपने कर्तव्यों का भी सम्यक निबाह करना होता है। जो लोग कन्नौज की लहूलुहान बच्ची को फौरन अस्पताल ले जाने की जगह उसकी तस्वीरें उतारने में मशगूल थे, क्या उन्होंने अपने नागरिक धर्म का निर्वाह किया? ऐसे तमाशाई लोगों के खिलाफ भी क्यों नहीं कार्रवाई होनी चाहिए? मोबाइल वीडियो और सोशल मीडिया के जरिये किसी उत्पीड़न, शोषण या कमी को उजागर करना यदि सराहनीय कार्य है, तो किसी की तकलीफ का तमाशा बनाना भी आपराधिक कृत्य है। देश भर में बच्चियों और महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध में इस आभासी सुख का बड़ा योगदान है और इसे हतोत्साहित करने की जरूरत है। विडंबना देखिए कि ऐसे लोगों के चेहरे को बेनकाब भी किसी ने इसी माध्यम के सहारे किया है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने दशकों पहले इंसान होने की आसान कसौटी बताई थी- यदि तुम्हारे घर के/ एक कमरेे में आग लगी हो/ तो क्या तुम/ दूसरे कमरे में सो सकते हो?/ यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में/ लाशें सड़ रही हों/ तो क्या तुम/ दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो? हमें अपने समाज को इस स्थिति में पहुंचने से रोकना होगा। उसके भीतर यदि कुछ सड़ रहा है, तो उसका उपचार जरूरी है।
सभी से निवेदन है की समाज में हो रहे महिलाओं के साथ गलत कामों के खिलाफ वीडियो की बजाय आवाज उठाए ताकि भारत में हो रहे अपराधो को कंट्रोल कर सके । उम्मीद है समाज इसपर विचार जरूर करेगा ।
ई. मयंक माथुर – पत्रकार