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कानपुर देहात। समाज और शासन की निगाह में शिक्षा की गुणवत्ता सर्वोपरि है इसमें कोई दो राय नहीं। पर सवाल यह है कि गुणवत्ता सुनिश्चित करने का रास्ता क्या सिर्फ शिक्षक को लगातार दबाव और तनाव में रखने से ही निकलेगा। हालिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह स्पष्ट हो गया है कि न केवल नए शिक्षक बल्कि वे भी जो आरटीई लागू होने से पहले से सेवा में हैं अब पदोन्नति या नौकरी बनाए रखने के लिए टीईटी पास करने की बाध्यता में आ गए हैं। जिनकी सेवा पांच साल से कम बची है उन्हें अपवाद माना गया है, पर बाकी सभी को दो साल में परीक्षा पास करनी ही होगी अन्यथा सेवा समाप्ति या अनिवार्य सेवानिवृत्ति का सामना करना होगा। यहाँ मूल प्रश्न टीईटी का नहीं है। मूल प्रश्न यह है कि लगातार बदलते नियम, बार-बार की कानूनी व्याख्याएँ और नई शर्तें शिक्षक को पढ़ाने से ज्यादा अपनी नौकरी बचाने की फिक्र में उलझा रही हैं। वर्षों से सेवा कर रहे शिक्षकों को अचानक दो साल का अल्टीमेटम देकर परीक्षा पास करने के लिए मजबूर करना क्या उचित है? यह तो वही स्थिति हुई कि एक चिकित्सक, जिसने बीस साल तक मरीजों का सफल इलाज किया हो उसे अचानक कह दिया जाए कि अब एक नई परीक्षा पास करो अन्यथा तुम्हें अस्पताल से बाहर कर दिया जाएगा।
शिक्षक पहले ही मर्जर, पेयरिंग, डेटा संग्रह, सर्वे और चुनाव ड्यूटी जैसे गैर-शैक्षिक बोझ से हलाकान थे। अब उसके सिर पर यह तलवार भी लटकाई गई है कि दो साल में परीक्षा पास करो या बाहर निकलो। सवाल यह है कि क्या शिक्षा की गुणवत्ता इस तरह से बढ़ेगी या शिक्षक का मानसिक संतुलन बिगड़ेगा? एक तनावग्रस्त शिक्षक क्या बच्चों के सामने प्रसन्नचित्त और प्रेरणादायी भूमिका निभा पाएगा? समाज, शासन और न्यायालय सभी यह मान बैठे हैं कि सख्ती ही सुधार का रास्ता है। पर शायद यह भूल रहे हैं कि शिक्षक कोई मशीन नहीं है जिसे नए सॉफ्टवेयर अपडेट से बेहतर बना दिया जाए। शिक्षक भी मनुष्य है जिसका आत्मविश्वास और मानसिक शांति ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। यही पूंजी बार-बार के फैसलों और कठोर नियमों से छीनी जा रही है।
जरूरत इस बात की है कि शिक्षक को सहयोग दिया जाए, उसके अनुभव का सम्मान किया जाए और यदि नई योग्यता आवश्यक भी है तो उसे सहज संक्रमण की राह से लागू किया जाए। पर हो यह रहा है कि शिक्षक को लगातार कठघरे में खड़ाकर दिया जाता है, मानो सारा शैक्षिक संकट उसी की वजह से हो। यह प्रवृत्ति खतरनाक है क्योंकि इससे शिक्षक अपने पेशे से मोहभंग का शिकार होगा और अंततः नुकसान बच्चों को ही उठाना पड़ेगा इसलिए बहस अब केवल टीईटी पर नहीं रह गई है, बहस इस बात पर है कि शिक्षक का मनोबल बचाया जाए या तोड़ा जाए। समाज और शासन को यह समझना होगा कि दबाव से गुणवत्ता नहीं आती, गुणवत्ता आती है सहयोग, सम्मान और स्थिरता से और यदि यह नहीं समझा गया तो शिक्षा का भविष्य भी निरंतर तनावग्रस्त रहेगा।
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