मौजूदा दौर में स्मार्ट गैजेट्स और सहूलियतों के बीच पलते बच्चों की संभाल-देखभाल कई मोर्चों पर विचारणीय हो चली है। आज के बच्चे कम उम्र में ही समझने लगे हैं कि कोई विचार या व्यवहार उनके साथ जोड़ा जा रहा है या उनपर थोपा जा रहा है। वहीं इस खुले और बदलते परिवेश में बच्चों को बिना किसी नियंत्रण और समझाइश के भी नहीं रखा जा सकता और बालमन को बांधना भी संभव नहीं। एक संतुलन बनाना आज की परवरिश की अहम दरकार है। हद से ज्यादा खुलापन और जरूरत से ज्यादा बंधन दोनों ही बालमन को दिशाहीन करते हैं। बच्चों के व्यक्तित्व विकास की सहज प्रक्रिया में बाधा बनते हैं। ऐसे में यह रिश्ता मनोबल और मार्गदर्शन के भाव-चाव को लिये हो तो हर दौर में बच्चों को थामा जा सकता है।
सहज और सरल हों बंधन
आजकल अधिकांश अभिभावक यह कहते नज़र आते हैं कि वे तो बच्चों को कुछ नहीं कहते, ‘वी आर लाइक फ्रेंड्स‘। कुछ हद तक यह बर्ताव सही भी है। अभिभावकों का अपने बच्चे का दोस्त होना सबसे ज्यादा ज़रूरी है, पर माता-पिता होने के नाते उसे समयानुसार कुछ सधी बातें कहना और समझाना भी उनकी ही जिम्मेदारी है। बच्चों की सही परवरिश के लिए उनका दोस्त बनने के साथ ही जीवन के भले-बुरे रंगों से खुलकर परिचित करवाना भी आवश्यक है। नई पीढ़ी के लिए खुलापन ही नहीं, सहज-सरल बंधन और नियम भी जरूरी हैं, क्योंकि बंधन जीवन को बांधते ही नहीं, साधते भी हैं। यों भी आज के बचपन से अनगिनत जोखिम भरी बातें जुड़ गई हैं। जिनसे उपजते भटकाव के परिवेश में बच्चों को कुछ कहने और न कहने के बीच एक संतुलन ज़रूरी है। सहज बंधनों के जरिये सार्थक सीख देने का काम माता-पिता ही कर सकते हैं। दरअसल, बचपन में होने वाली कितनी ही गलतियां आगे चलकर आदत का रूप ले लेती हैं। इसीलिए कुछ सीधी-सरल पाबंदियों और प्रेमपगे बर्ताव के साथ बालमन को परिपक्व विचारों का धनी बनाएं।
स्वयं आदर्श बनें
परिवार ही बच्चों की पहली पाठशाला होता है। बच्चों के भविष्य की डोर अभिभावकों के हाथों में होती है। ऐसे में सही पालन-पोषण के लिए बच्चों के मनोविज्ञान को समझने के साथ ही कुछ बंधन, नियम और कायदे बड़ों की ज़िन्दगी का हिस्सा भी होने चाहिए। अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में अभिभावकों और बच्चों के रिश्तों को लेकर हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, आठ से चौदह साल के लगभग 53 प्रतिशत बच्चे अपने माता-पिता को एक दोस्त की तरह नहीं, बल्कि एक गाइड की भूमिका में देखना चाहते थे। निस्संदेह, बालमन को दिशा देने से पहले खुद पेरेंट्स को हर मामले में सही जीवनशैली का चुनाव करना होगा। लेकिन कई अभिभावक खुद ही एक संकुचित दायरे में सिमटे रहते हैं। फिर बात चाहे आदतों की हो या व्यवहार की। इसीलिए बच्चों को भी सधे-स्पष्ट अंदाज़ में कुछ सिखाना मुश्किल हो जाता है। सही समय पर न केवल सधी बात करना और समझाइश देना बल्कि कई बार तो रोक-टोक करना भी आवश्यक होता है। इलिनोइस विश्वविद्यालय की प्रोफेसर लाउरे क्रामेर के मुताबिक, सामाजिक गतिविधियों से लेकर कई महत्वपूर्ण अनौपचारिक बातों तक, बहुत कुछ बच्चे अभिभावकों और अपने भाई-बहनों से ही सीखते हैं। यहां तक कि बच्चे कई गलत आदतों का शिकार भी उनके प्रभाव के कारण ही होते हैं।
ज़िंदगी का सबक
इसमें कोई बुराई नहीं कि बच्चों को जीवन के हर पहलू का परिचय घर से मिले। आजकल अधिकतर माता-पिता बच्चों के लिए सुख-सुविधाएं जुटाने की भागमभाग में गुम हैं। बच्चों के जीवन में भी ज़रूरतों की जगह इच्छाओं ने ली है। कई मायनों में बच्चों का व्यवहार भी बदल गया है। कभी बात-बात पर गुस्सा हो जाते हैं। ऐसे में उनके भावी व्यक्तित्व को सही दिशा देने के लिए जरूरी है कि बड़े अपनी उम्मीदों को उनपर न थोंपें। वहीं हर बच्चे में अलग गुण होते हैं। एक की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती। इसीलिए समय निकालकर उनसे बतियाएं भी। लेकिन हमारे परिवारों में बच्चों से बातें अधिकतर उनकी पढ़ाई या उनको दी जाने वाली समझाइश से ही जुड़ी होती हैं। उनके मन-मस्तिष्क की उलझनें नहीं सुनी जातीं। ऐसे में समझना होगा कि अपने मन की बात साझा करने का मौका नई पीढ़ी को शुरुआती पड़ाव पर ही न मिले तो उनके विचारों को विस्तार कहां से मिलेगा? उनसे पढ़ाई से इतर विषयों पर भी बातचीत की जाये। यही वजह है कि दोस्त बनकर जितना खुलापन दिया जाना आवश्यक है, मार्गदर्शक बनकर उनकी सोच की अगुआई करना भी उतना ही ज़रूरी है। स्नेह के साथ-साथ बच्चों को ज़िंदगी के सार्थक सबक दिए जाने भी आवश्यक हैं।
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