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मध्यप्रदेश

जिज्ञासु राजा के प्रसंग से समझाया जो खुद बंधन में है वो दूसरे का बंधन नहीं खोल सकता

पिछले महात्माओं के उदाहरण देकर इस अनमोल मनुष्य शरीर के महत्व को समझाने वाले, जीते जी मुक्ति मोक्ष का रास्ता नामदान बताने वाले इस समय के पूरे समर्थ सन्त सतगुरु उज्जैन के बाबा उमाकान्त जी ने 28 मई 2022 प्रातः कालीन बेला में दिए व यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर प्रसारित लाइव सन्देश में बताया कि आप भाग्यशाली हो की मनुष्य शरीर मिला।

उज्जैन,अमन यात्रा : पिछले महात्माओं के उदाहरण देकर इस अनमोल मनुष्य शरीर के महत्व को समझाने वाले, जीते जी मुक्ति मोक्ष का रास्ता नामदान बताने वाले इस समय के पूरे समर्थ सन्त सतगुरु उज्जैन के बाबा उमाकान्त जी ने 28 मई 2022 प्रातः कालीन बेला में दिए व यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर प्रसारित लाइव सन्देश में बताया कि आप भाग्यशाली हो की मनुष्य शरीर मिला। इसे पाने के लिए देवता तरसते हैं।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही-
जीव चराचर जाचत तेही॥
क्यूंकि उनके 17 तत्वों के लिंग शरीर में ऐसा कोई रास्ता नहीं है जिससे वो सीधे अपने वतन पहुँच जाएँ। उसके लिए उनको भी मनुष्य शरीर में आना पड़ता है, जन्म लेना पड़ता है, सतगुरु की, रास्ता बताने वाले की खोज करनी पड़ती है, गुरु का बताया हुआ सुमिरन, ध्यान, भजन का उपाय करना पड़ता है। तब वहां पहुँच पाते हैं। उनके लिए ज्यादा मुश्किल और आपके लिए आसान है। उनके लिए दूरी ज्यादा और आपके लिए कम हैं। तो वो देवता तरसते रहते हैं जिनके नाम पर आप, किसी ने कहा पेड़ में, पौधे में, मूर्ति में भगवान हैं, जो बोलते, डोलते नहीं, पूछो तो जवाब भी नहीं देते हैं। उनसे आप मांगते हो, झोली फैलाते हो, मुक्ति-मोक्ष मांगते हो। जो खुद अपना मुक्ति-मोक्ष नहीं करा सकता वो आपको कैसे देगा? मैले पानी से सफाई कैसे कोई कर सकता है। सफाई से गन्दगी जाती है।
जिज्ञासु राजा का प्रसंग-
एक बार एक धार्मिक राजा था। एक बार इच्छा व्यक्त किया की कुछ आध्यात्मिक जानकारी की जाय। तो लोगों को बुलाने, पूछने लगा। लोग बताये की ये परमात्मा कई अंश जीवात्मा है। ये मनुष्य शरीर आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाने के लिए मिला है। ये बंधन में बंधी है। 4 शरीरों में बंधी हुई है। 5 तत्वों का कारण शरीर, 9 तत्वों का सूक्ष्म, 17 तत्वों का लिंग और ये 5 तत्वों का स्थूल शरीर। जब ये चारों खोल उतेरेंगे तब काम होगा। तो राजा को यह चीज समझ में आई यह भी सुना कि जब इन चारों से निकलेगी तब इसको मुक्ति का चांस बनेगा। अब अंदर से मुक्ति कैसे मिलेगी? लोगों के कहने पर कथा, भागवत, महाभारत आदि करवाए, प्रवचन सुना लेकिन संतुष्टि नहीं मिली। एक सन्त का जीव राजा के यहां सेवा करता था। एक दिन राजा सोच रहा था कि मौत तो आनी ही आनी है। शरीर एक दिन छूटेगा जरूर। जिस काम के लिए शरीर मिला है, वह काम नहीं हो पाएगा और कर्मों की सजा मिल जाएगी, नर्क में जाना पड़ जाएगा। तो उस व्यक्ति ने पूछा, आप उदास क्यों हो? तो बताया।
कहने से समस्या का समाधान हो जाता है-
कुछ हो जाए और हल्ला मचा दो तो कोई कुछ बता देता है और वह चीज भी मिल जाती है। और अगर यह सोच लो कि चला गया, अब मिलने वाला नहीं है तो नहीं मिलता है। ऐसे ही बताने से कुछ न कुछ हल निकल आता है। जैसे लड़की की शादी नहीं हो रही हो तो मेल-मिलाप वालों से कहना चाहिए। हिल्ले रोजी बहाने मौत। तो कोई न कोई बता देगा। कोई न कोई माध्यम बन जाता है।
प्रेम भाव से ही सतगुरु को बुलाया रिझाया जा सकता है, उन्हें कोई लालच नहीं होता-
तो उस आदमी ने कहा की हमारे गुरु इसका उत्तर दे जाएंगे। राजा बोला बुला ले आओ। बोला, वह नहीं ऐसे नहीं आएंगे।
राज द्वारे साधु जन तीन बात को जाएं।
क्या माया क्या मीठा क्या मान।।
राजा महाराजाओं के यहां मान-सम्मान पाने के लिए लोग जाते थे। लेकिन वह साधु ऐसे साधु नहीं होते थे। जिनको मालिक पर विश्वास हो जाता था वह नहीं जाते थे। राजा ने सोचा हम जिसके पास जाएंगे उसका मान-सम्मान बहुत बढ़ जाएगा और वह व्यक्ति पता नहीं कैसा हो इसलिए हमारा जाना ठीक नहीं। सोचा गुड डाल देते हैं चींटे आ जाएंगे। पहले भंडारे वगैरह चलाते थे तो बहुत लोग खाने के लिए आ जाते थे। आप लोगों ने कबीर साहब और सेठ धर्मदास जी वाला प्रसंग सुना होगा। तो ऐसे चींटे नहीं होते महात्मा। तब राजा ने पूछा कोई उपाय बताओ, महात्मा कैसे आ सकते हैं। तो कहा कि भगवान भक्तों के बस में होते हैं। जब प्रेम, दीनता आ जाती है, सर्वस्व जब उनको सौंप देता है, हृदय में उनको बसा लेता है तब वह उसके बस में हो जाते हैं। भगवान का हाथ उनके पैरों के नीचे होता है। ये चीज गलत नहीं हो सकती है। तो पहले तो आप अपने दिल में उनके लिए प्रेम की जगह बनाओ और दिल से, प्रेम से, हृदय से, सम्मान के साथ उनको बुलाओ तो वह आ सकते हैं।
ज्यादा किताबें, धर्म ग्रंथ पढ़ने वाले ही भूल, भ्रम में पड़ जाते हैं-
और जो विश्वास कर लेते हैं कि
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।।
कहा वो आपके भाव को समझ जाएंगे।
सन्त न देखें चाल कुचाल।
वह तो देखें अंतर का हाल।।
उस व्यक्ति ने कहा हमारे गुरु जी बताते हैं कि सभी जीवात्मा है, एक ही जगह से जुड़ी हुई है, सब एक जगह की है और सब का तार एक-दूसरे से जुड़ जाता है जैसे भाई, भाई को याद करता है तो भाई को भी उसकी याद आ जाती है। तो राजा आप अंदर से भाव बनाओ, प्रार्थना करो तो वह आ जाएंगे। तो राजा ने मन ही मन प्रणाम किया, भाव बनाया, प्रार्थना किया कि आप आ जाओ। उनकी प्रार्थना लेकर वह आदमी गया कि हुजूर राजा साहब ने आपको बुलाया है, हाथ जोड़कर प्रार्थना किया, प्रेम के साथ बुलाया है और मेरी भी प्रार्थना है की आप चलें। लोगों की भी इच्छा रहती है कि हम जहां से जुड़े हुए हैं, उनको भी हम फायदा दिला दें। छोटे छोटे लोग बड़ा काम कर देते हैं। तो गुरु ने सुन लिया। आए, कहा पूछो। राजा बोला महाराज! मैंने बहुत कोशिश किया लेकिन बंधन से मुक्ति कराने वाला हमको कोई नहीं मिला। लोगों के बताए सभी कामों तीर्थ-व्रत, पूजा-पाठ, यज्ञ हवन आदि सब करके देख लिया लेकिन हमको कुछ लगा नहीं, महसूस नहीं हुआ। पास में राजा के कुल गुरु भी बैठे हुए थे। राजा बोला इनकी बातें कुछ तो समझ में आती है, थोड़ा विश्वास हुआ लेकिन पूरी संतुष्टि नहीं मिली। विद्वत्ता और ज्ञान अलग होते हैं। किताबें पर लिखने से विद्वत्ता आती है लेकिन खुद प्रैक्टिकल करने, अनुभव से ज्ञान आता है। विद्वत्ता से ज्ञान का पता नहीं चलता है। जैसे सब लोग कहते हैं कि भगवान है लेकिन भगवान मिलेगा कैसे, यह सब को नहीं पता होता। तो कहा इसका जवाब हम देंगे। आप बुरा तो नहीं मानोगे। नहीं मानेंगे। तो रस्सी मंगवाई। राजा से कहलवा कर पंडित जी को बांध दिया। फिर राजा से कहा एक मिनट के लिए आपका अधिकार हमको दे दो। चलो दे दिया। तो पास खड़े सैनिक को कहा राजा को बांध दो। बांध दिया। उसके बाद कहा पंडित जी से कहा राजा को खोलो। पंडित जी बोले हम कैसे खोलें? हम तो खुद ही बंधन में बंधे पड़े हैं। राजा से कहा पंडित जी को खोलो। राजा बोला हम भी बंधे पड़े हैं, हम नहीं खोल सकते। तो समझाया कि जो खुद बंधन में है, वह दूसरे के बंधन को कैसे खोलेगा? जो निर्बंध है, वही तो बंधन को काट सकता है। निर्बंध कौन होते हैं? हमारे गुरु महाराज जैसे पूरे सन्त सतगुरु निर्बंध होते हैं और बंधन को खोल सकते हैं। जैसे राजा जनक देह में होते हुए भी विदेही कहलाए।
Author: aman yatra

aman yatra

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