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साहित्य जगत

पत्रकारिता यानी अंदर की बात

मीडिया कितना भी कमाल का काम करे उसके काम की एक-एक सीमा उसके सामने रहती है! यानी कि वह खबर दे सकता है‚ विचार दे सकता है‚ मजा दे सकता है‚ लेकिन क्रांति हरगिज नहीं कर सकता! पत्रकारिता राज्यसत्ता का चौथा पाया मानी जाती है इसलिए वह हमेशा राज्यसत्ता की हदों में रहकर ही काम करती है‚ जबकि राज्यसत्ताएं क्रांतिकारी नहीं हुआ करती!

मीडिया कितना भी कमाल का काम करे उसके काम की एक-एक सीमा उसके सामने रहती है! यानी कि वह खबर दे सकता है विचार दे सकता है मजा दे सकता है लेकिन क्रांति हरगिज नहीं कर सकता! पत्रकारिता राज्यसत्ता का चौथा पाया मानी जाती है इसलिए वह हमेशा राज्यसत्ता की हदों में रहकर ही काम करती है जबकि राज्यसत्ताएं क्रांतिकारी नहीं हुआ करती! फिर भी बहुत से चतुर सुजान पत्रकार पत्रकारिता की नौकरी करते हुए इसी क्रांति मुद्रा को ओढ लेते हैं और सोशल मीडिया के जमाने में वे अपनी इसी मुद्रा के ‘लाइक्सको ही अपने लिए सनद मान लेते हैं और समझते रहते हैं कि वे सचमुच के क्रांतिकारी हैं! मीडिया में क्रांतिकारी दिखने की यह बीमारी ऐसी होती है कि वह आसानी से ठीक नहीं होती। इन दिनों ऐसे कई बेरोजगार हो गए या कर दिए गए पत्रकार हैं जो जब मीडिया में थे तब तो उनके तेवर क्रांतिकारी पत्रकार के थे ही और अब जब मीडिया से बाहर हो गए हैं या कर दिए गए हैं तो और अधिक कटखने क्रांतिकारी नजर आते हैं। यह एक प्रकार की ‘आत्मभ्रांतिकी बीमारी है। यह बीमारी पत्रकारिता के बारे में उनके पापूलर बोध और पत्रकारिता के शिक्षण के कारण है!


 वे समझते हैं कि पत्रकारिता एक ऐसी ‘विशेष सेवाहै जिसके जरिए समाज को सुधारा और बदला जा सकता है! और उसे पढाया भी कुछ इस तरीके से जाता है मानों पत्रकारिता पेशा न हो समाज सुधारने का क्रांतिकारी अभियान हो! यही सारी गलतफहमियों की जड है। इस गलतफहमी के चलते पत्रकार अपने को पत्रकार कम ‘चे ग्वेवाराअधिक समझता है। यह लेखक अपने अनुभव से कह सकता है कि बहुत से पत्रकार पत्रकारिता का पेशा करते हुए भी उसे पेशे से कुछ अधिक समझते हैं और यही सारी गलतफहमियों की जड होता है कि जब कोई मीडिया संस्थान किसी कारण से किसी पत्रकार को निकाल देता है तो भी वह अपने को शहीद से कम नहीं समझता! यह कुछ बरस पहले की बात है जब एक विश्वविद्यालय के पत्रकारिता पाठयक्रम में दाखिले से पहले अभ्यर्थियों का साक्षात्कार अनिवार्य होता था। ऐसे ही साक्षात्कार लेने वालों में यह लेखक भी होता था। ऐसे ही साक्षात्कार परीक्षा के दौरान यह लेखक एक सवाल सभी से पूछा करता था कि आप पत्रकारिता क्यों करना चाहते हैं और हर अभ्यर्थी लगभग एक जैसा जबाव दिया करता था कि समाज को बदलने के लिए पत्रकारिता करना चाहता हूं। मैं साफ करता कि आज की पत्रकारिता का मॉडल मूलतः एक बिजनेस का मॉडल है। वह मुनाफे के लिए की जाती है। इन दिनों सूचना भी एक प्रोडक्ट है।


 वह उसी तरह बिकने योग्य ‘पण्यहै जैसे कि मनोरंजन एक प्रोडक्ट है सीरियल फिल्में और विज्ञापन सब कुछ एक प्रोडक्ट ही हैं और यह फ्री में नहीं मिलती। दर्शक श्रोता या पाठक-जनता उसे पाने के लिए डीटीएच सेवा के लिए पैसा देता है। आप पत्रकारिता करेंगे या समाज को सुधारेंगे फिर सूचना भी संपादित संशोधित की जाती है कई बार बदल भी दी जाती है और कई बार उसे भी सेंसर कर दिया जाता है क्योंकि क्या और कौन सी सूचना देनी है कौन सी नहीं देनी है इसका फैसला मीडिया के मालिक ही करते हैं ऐसे में आप क्या करेंगे इसके जवाब में ज्यादातर इधर-उधर झांकने लगते और कोई कहते कि हम फिर भी कोशिश करेंगे.मैं फिर कहता कि आप साफ क्यों नहीं मानते थे कि हम पत्रकारिता इसलिए करना चाहते हैं कि पत्रकार का रुतबा होता है उसकी पावर होती है और कोई चाहे तो उससे कमाई भी कर सकता है।


 आप इसीलिए पत्रकार बनना चाहते हैं कि आप का भी पव्वा हो आप भी कमाई करें। ऐसा सुन वे मुस्कुराने लगते! कई कहते कि सर कोशिश करने में क्या हर्ज है उनमें से बहुतों को दाखिला मिल जाता। कभी किसी से मुलाकात होती तो मालूम होता कि वह फलां मीडिया संस्थान में फलां पद पर काम कर रहा है। तब वह नहीं बताता कि उसने कितना समाज सुधार दिया। पर हम अंदर की बात जानते थे! ऐसे पत्रकार अंदर की बहुत सी बातें छिपाकर अपने को शहीद की तरह ही पेश करते हैं जबकि उनके साथ जो हुआ है बहुत से पत्रकारों के साथ हो चुका है! निजी मालिक हायर-फायर में यकीन करते हैं लेकिन गलतफहमी का मारा पत्रकार समझता है कि वह मीडिया का मालिक है! बेहतर हो कि ऐसी ‘आत्मभ्रांतिके मारे पत्रकार अंत में पूरे ‘अहंकारोन्मादी‘ (मेग्लोमेनियक) बन जाते हैं और ऐसे ‘अहंकारोन्मादियों का इलाज अंतत अस्पताल में ही संभव है!


लेखक- सुधीश पचौरी

Author: aman yatra

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