दवा माफियों के इशारे पर कोरोना का भौंकाल
कोरोना की दस्तक होते ही दुनिया में एक बार फिर भय का वातावरण निर्मित होने लगा है। चीन की चालाकियों से संसार भर में दहशत व्याप्त हो रही है। ऐलोपैथी की सत्ता को स्वीकार चुके देशों में अंग्रेजी दवाओं के माफियों की सरगर्मियां तेज होने लगीं हैं।
कोरोना की दस्तक होते ही दुनिया में एक बार फिर भय का वातावरण निर्मित होने लगा है। चीन की चालाकियों से संसार भर में दहशत व्याप्त हो रही है। ऐलोपैथी की सत्ता को स्वीकार चुके देशों में अंग्रेजी दवाओं के माफियों की सरगर्मियां तेज होने लगीं हैं। उन्मुक्त आचरण करने वाले ऐलोपैथी के ज्यादातर चिकित्सकों व्दारा दवा कम्पनियों की लुभावनी दलाली के आमंत्रण पर अभी से कमर कस ली गई है। निजी अस्पतालों ने मरीजों के शोषण का नया फार्मूला इजाद कर लिया है।
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों, अन्त्योदय राशन कार्डधारकों तथा श्रमिक कार्डधारकों को चिकित्सा हेतु दिये गये आयुष्मान कार्ड पर 5 लाख तक के नि:शुल्क इलाज की व्यवस्था सरकारी अस्पतालों के अलावा सूचीवध्द निजी चिकित्सालयों में भी की गई है। अतीत गवाह है कि इन आयुष्मान कार्डधारकों को प्रलोभन देकर फर्जी बिलों के अनेक मामले सामने आ चुके हैं। इस फर्जीवाडे में सरकार को करोडों का चूना लगाने वाले प्रकरणों पर हायतोबा मचते ही जांच के आदेश तो दे दिये गये, परन्तु जांच के परिणामों से आम आवाम आज तक अनजान है। ऐलोपैथी के एकछत्र राज्य की सल्तनत अंग्रेजों के जमाने में कायम हुई थी जो आज चक्रवर्ती बनकर देश-दुनिया को अपना गुलाम बना चुकी है।
इस पैथी से जुडे चिकित्सकों को मनमाने इलाज की पूरी छूट मिली हुई है। कोरोना के पुराने अनुभवों ने दु:खद पहलुओं के सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये थे। उस दौर में मरीजों को दी जाने वाले ऐलोपैथी औषधियों में ज्यादातर दवाइयां सरकारी आपूर्ति से बाहर की थीं। इन दवाइयों को संचार माध्यमों ने डिवेट के दौरान किन्हीं खास कारणों से खूब प्रचारित किया था। प्रचार के उपरान्त इन खास दवाओं का अकाल दिखाया गया। कथित कारगर इस औषधि को पाने के लिए लोगों की होड मच गई। दवा बनाने वाली कम्पनी ने अपने सिपाहसालारों के माध्यम से निर्धारित कीमत से कई गुना ज्यादा वसूले। ऐसे अनेक मामले कोरोना काल के बाद वास्तविक पत्रकारिता के माध्यम से सामने आये थे मगर ऐलोपैथी की गहरी जम चुकी जहरीली जडों पर कलम का कोई असर नहीं हुआ।
वास्तविकता तो यह है कि पत्रकारिता जगत में भी अब पूंजीवाद का एकाधिकार हो चुका है। बडे-बडे औद्योगिक घरानों ने सिक्कों की चमक से कथित कलमकारों को गुलाम बना लिया है। चांदी की जूती का जादू स्वार्थ के वाहन पर चढकर व्यक्तिगत लाभ के अवसरों की तलाश में निकल पडा है। कलम को हथियार बनाकर विलासते के साधन बटोरने वाले आज सरकारी सम्मानों के तमगे लगाये सम्पत्ति बटोरने में लगे हैं। ऐसे लोगों की फौज जमाकर के अधिकांश संचार माध्यमों में लम्बी-लम्बी डिवेड, विदेशी हालातों का विश्लेषण और तिस पर देश के भविष्य की भयावह कल्पनायें परोसने का दौर शुरू हो चुका है। सकारात्मकता के आभूषणों से सुसज्जित रहने वाली सोच आज अपने अस्तित्व की लडाई लड रही है जबकि नकारात्मकता के चीथडों अब निरंतर सुनहरे आवरण चढते जा रहे हैं। कोरोना पर पहले भी विश्व स्वास्थ्य संगठन का रूख चीन के रिमोड पर ही रहा था, आज भी है। इस दिशा में दुनिया के चीखने-चिल्लाने के बाद भी न तो डब्ल्यूएचओ का मुखिया ही बदला गया और न ही उसका दृष्टिकोण।
मानवता को तानाशाही के व्दारा अपने देश में नस्तनाबूत करने वाला ड्रैगन आज पूरी दुनिया के विरोध के बाद भी अपनी वास्तविक स्थिति स्पष्ट नहीं कर रहा है। विश्लेषण में स्पष्ट हो चुका है कि स्थाई उपचार हेतु ऐलोपैथी से हजार गुना ज्यादा आयुवैदिक औषधियां कारगर हैं परन्तु स्वाधीनता के बाद से ही आयुर्वेद को अनगिनत सरकारी प्रतिबंधों की बेडियों में जकड दिया गया था। जडी-बूटियों के संयुक्तीकरण से बनायी जाने वाली चमत्कारी औषधियों को लुप्त करने का सरकारी प्रयास अफसरशाही के कंधे पर सवार होकर निरंतर सफलता के मापदण्ड तय कर रहा है। अनुसंधान के नाम पर मरीजों की जिन्दगी से खिलवाड करने का अधिकार केवल और केवल ऐलोपैथी के पास है। प्राकृतिक चिकित्सा से लेकर आयुर्वेद तक को कोरोना पर शोध करने का अवसर ही नहीं दिया गया है।
जिस देश में भगवान धनवन्तरी के प्राचीन ग्रन्थ अवतरित हुए हों वहां पर आयातित पश्चिमी सभ्यता में रचे-बसे डाक्टरों ही परमात्मा का दर्जा देने की वकालत की जाती रही है। खून पिपासू मानसिकता वालों की हैल्थ सिक्यूरिटी कम्पनियां जिस रूप में अफसरशाही के साथ जुगलबंदी करके अपना अधिपत्य स्थापित कर रहीं हैं उससे वसुधैव कुटुम्बकम की सनातनी विचारधारा का आखिरी पिण्डदान जल्दी ही होने की संभावना दिखने लगी है। वर्तमान में कोरोना की दस्तक को लेकर चौराहों से लेकर चौपालों तक पर चर्चाओं का बाजार गर्म है। कहीं दवा माफियों के इशारे पर कोरोना का भौकाल फैलाने की बात कही जा रही है तो कहीं विश्व स्वस्थ्य संगठन की एवाइजरी को चीनी षडयंत्र का प्रत्यक्षीकरण बताया जा रहा है।
देश के लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा होने की वजह से पिछले कोरोना काल में देशवासियों पर वायरस का अपेक्षकृत कम ही असर हुआ था किन्तु संचार माध्यमों व्दारा निर्मित भय के वातावरण ने ज्यादा लोगों की जाने गईं थीं। इस बार भी चीन के रिमोड पर काम करने वाले डब्ल्यूएचओ की घोषणा के बाद से ही संचार माध्यमों ने इस ऐजेन्डे को एक बार फिर तेजी से फैलाना शुरू कर दिया है। अफसरशाही ने अपने पुराने ढर्रे का आधुनिकीकरण कर लिया है। वातानुकूलित कमरों में बैठे अधिकारियों के तुगलकी फरमान धरातल पर काम करने वालों के लिए मुसीबत का सबब बनने लगे हैं। कोरोना के नाम पर आंधी के आम की तरह पहुंचने वाले वजट हेतु लालफीताशाही ने अभी से लाल कारपेट बिछाना शुरू कर दिये हैं।
पुराने संसाधनों, उपकरणों, खरीदी गई सामग्री का जानकारियां भेजने के स्थान पर नयी खरीददारी के डिमांड नोट भेजने का क्रम शुरू हो गया है। कोरोना को लाभ का अवसर मानने वाले देश को डरा-धमका कर जान सलामत रखने की कीमत वसूलने की तैयारी कर चुके हैं। ऐसे में आम आवाम को खुद ही आगे बढकर मानवता के दुश्मनों के इस षडयंत्र को नस्तनाबूत करना होगा तभी सुरक्षा कवच की मजबूती वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में विस्तार पा सकेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
लेखक -डा. रवीन्द्र अरजरिया