गुरुपूर्णिमा के दिन गुरुओं का ऐसा अपमान, पढ़कर के आप भी हो जाएंगे हैरान
गुरुपूर्णिमा जैसे पावन दिन पर जब देश भर में लोग अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान के गीत गा रहे हैं तब झांसी संस्करण के दैनिक जागरण न्यूजपेपर ने जागरण एक्सक्लूसिव में शिक्षकों के प्रति ने एक अपमानजनक, दुर्भावनापूर्ण और बेहद निंदनीय खबर प्रकाशित की है। काश! सबको मिल जाए ऐसी नौकरी नामक शीर्षक से प्रकाशित खबर से शिक्षकों में आक्रोश है

कानपुर देहात। गुरुपूर्णिमा जैसे पावन दिन पर जब देश भर में लोग अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान के गीत गा रहे हैं तब झांसी संस्करण के दैनिक जागरण न्यूजपेपर ने जागरण एक्सक्लूसिव में शिक्षकों के प्रति ने एक अपमानजनक, दुर्भावनापूर्ण और बेहद निंदनीय खबर प्रकाशित की है। काश! सबको मिल जाए ऐसी नौकरी नामक शीर्षक से प्रकाशित खबर से शिक्षकों में आक्रोश है। शिक्षक दैनिक जागरण न्यूजपेपर का अपने अपने तरीके से विरोध कर रहे हैं। जागरण द्वारा प्रकाशित खबर में लिखा गया है कि वेतन डेढ़ लाख रुपए महीना।
कार्य कुछ नहीं, आओ, बैठो और जाओ।
शिक्षाशास्त्री प्रवीण त्रिवेदी का कहना है कि यह मात्र एक वाक्य नहीं, बल्कि उस मानसिक दीवालियापन का दस्तावेज है जो पत्रकारिता की आड़ में शिक्षकों के प्रति घृणा और उपेक्षा का जहर घोल रहा है। गुरुपूर्णिमा के दिन ऐसी भाषा लिखना केवल असंवेदनशीलता नहीं बल्कि एक सुनियोजित वैचारिक हमला उस पेशे पर है जो अपने कोनों में बैठे हुए भी देश के भविष्य को आकार देता है। जो शिक्षक पेयरिंग नीति के कारण मानसिक उत्पीड़न झेल रहे हैं, जिनका स्थानांतरण न हो पाने के कारण पारिवारिक जीवन संकट में है, जो रोज बदलती नीतियों की चक्की में पिस रहे हैं उन्हें कुछ नहीं करने वाला बताना, एक कायरता है। यह उन लाखों शिक्षकों के जले पर नमक छिड़कना है, जो शिक्षण कार्य के साथ-साथ पोषण, मतदान, जनगणना, आधार सत्यापन और ना जाने कितने सरकारी कार्यों में अनवरत लगे रहते हैं। इस खबर की भाषा उस गंदी सोच की देन है जो बेसिक शिक्षकों को हमेशा अयोग्य, निकम्मा और सरकारी बोझ मानती आई है।
यह न सिर्फ शिक्षकों के मनोबल पर चोट है बल्कि समाज में शिक्षक की गिरती साख के लिए सीधा उत्तरदायी भी है। ऐसी लेखनी पर शर्म आनी चाहिए। ऐसी सोच को पत्रकारिता कहकर बुलाना खुद पत्रकारिता का अपमान है। यदि यही पत्रकार स्कूल जाकर देख लेते कि इन कुछ नहीं करने वाले शिक्षकों को किन परिस्थितियों में पढ़ाना पड़ता है। भवनहीन स्कूल, किताबें अधूरी, दर्जनों योजनाओं का बोझ, डाटा फीडिंग की जंजीरें और फिर भी बच्चों को मुस्कराकर पढ़ाना तो शायद उनकी कलम शर्म से कांप जाती। आज सवाल इस खबर पर नहीं, उस सोच पर है जो शिक्षक को सबसे सरल निशाना समझती है। शिक्षक की चुप्पी को उसकी कमजोरी मत समझिए वह समाज का विवेक है जो बोलने लगा तो बहुतों की नींव हिल जाएगी। जो लोग अच्छाई में भी बुराई तलाशते हैं वह इंसान नहीं हैवान कहलाते हैं उन्हें पत्रकारिता करने का कोई अधिकार नहीं होता है।
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