
आजकल अधिकांश लोगों पर एक फितूर सा सवार हो गया है कि लोग उसे देखें। चाहे इसके लिए उसको कोई तमाशा क्यों न करना पड़े या फिर खुद को ही तमाशा क्यों न बनना पड़े। अब तो हालत यह हो गई है कि इंसान को जीने के लिए हवा-पानी कम और पर्सनल फोटो और वीडियोग्राफर ज्यादा चाहिए।
हर छींक, हर जम्हाई, हर अंगड़ाई, यहां तक कि खांसने तक को सिनेमाई क्लोज-अप में कैद होना चाहिए मानो जीवन कोई रियलिटी शो हो और कैमरे के बिना हमारा अस्तित्व अधूरा। हम सांस भी लें तो स्लो मोशन इफेक्ट, आंख झपकाएं तो ड्रम रोल और जरा दौड़ जाएं तो 4के क्वालिटी के साथ बैकग्राउंड म्यूजिक अनिवार्य क्योंकि सोशल मीडिया की महान दुनिया में नाटक नहीं मसाला बिकता है। असली जीवन अब अनुभवों से नहीं बल्कि रील्स की एडिटिंग ऐप्स से चलता है।
अब साथी नहीं, हमें ऑडियंस चाहिए, दोस्त नहीं हमें फॉलोअर चाहिए। खाना खाते हुए सेल्फी चाहिए, सोते-जागते वीडियो ब्लॉग्स चाहिए और हंसते-रोते लाइव स्ट्रीम चाहिए और मजाक तो यह है कि हम अब जीवन जीते नहीं बल्कि कैमरे के सामने जीने का अभिनय करते हैं। असली भावनाएं पीछे धकेल दी जाती हैं और उनके ऊपर फिल्टर चढ़ाकर एक कंटेंट बना दिया जाता है। व्यंग्य यह है कि जब हम खुद को हर वक्त लेंस से देखने लगते हैं तो आईना भी झूठा लगने लगता है और सच यह है कि इस तमाम एडिटिंग, स्लो-मो, फास्ट-मो और फिल्टर की दुनिया में असली जिंदगी धीरे-धीरे मर रही है बाकी रह गया है सिर्फ एक चमकता-दमकता तमाशा जिसमें हम सब कलाकार नहीं बल्कि कैद किए गए कैरेक्टर बन गए हैं। उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे, उसकी गाड़ी मेरी गाड़ी से लम्बी कैसे, उसकी कोठी मेरी कोठी से ऊंची कैसे? एक से बढ़कर एक, तेरे नहले पर मेरा दहला। चाहे कोई भी क्षेत्र हो हर व्यक्ति अपने को दूसरे से बढ़ कर दिखाने और दूसरे को नीचा दिखाने की फिराक में है, बात प्रतियोगिता की नहीं है बल्कि अंधी होड़ की है। हर कोई अपने आपको दूसरे से बेहतर साबित करने में लगा रहता है।
आपका घर कौन से सेक्टर में है, आपका बच्चा कौन से स्कूल जाता है? इससे आपकी हैसियत आँकता है। गर्मियों की छुट्टियों में आपने कौन कौन से देश का भ्रमण किया, शॉपिंग के लिए आप कौन से मॉल में जाते हैं, दुबई गए कि नहीं अगर नहीं तो आप डींग किस बात कि मारेंगे। आपके कपडे, जूते, गहने, किस ब्रांड कि हैं इससे आकलन करते हैं। पहले ब्रांड कि स्लिप शर्ट के या पैंट के अन्दर की तरफ छुपा कर लगाईं जाती थी परन्तु अब वो चीख चीखकर ब्रांड की घोषणा करती है। जेब पर या आस्तीन पर या फिर और किसी दूर से ही दिखाई पड़ने वाली जगह पर लगी रहती है।
दिखावे के पागलपन यहाँ तक बढ़ गया है कि कुछ लोग तो किसी परिचित की मृत्यु पर भी सेल्फी/फोटो खींचकर बिना कुछ सोचे समझे सोशल मीडिया पर डाल देतें है। सोशल मीडिया की यह प्रवृत्ति लत का कारण बनती जा रही है जिससे लोगों की कार्य क्षमता और कुशलता पर विपरीत असर पड़ रहा है। लोगों को सोशल मीडिया की सतही चमक दमक से दूर रहकर अपने असली जीवन के महत्व को समझना होगा अन्यथा आभासी दुनिया के फरेब में फंसकर वास्तविक जीवन से दूर हो जाएंगे।
राजेश कटियार, कानपुर
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