आनलाईन शिक्षा वर्तमान से उपजता शिक्षण का नवल पथ : प्रमोद दीक्षित मलय 

मानव जीवन कभी एकांगी और एकरस नहीं होता है। उसमें जीवनानुभवो के विविध पक्ष एवं इंद्रधनुषी रंग समाये होते हैं। जीवन के व्यापक फलक में स्नेह-प्रेम, शान्ति, करुणा, विश्वास, सरसता, उत्साह, उमंग, ऊर्जा और रचनात्मकता के मोहक सितारे टंके होते हैं तो वहीं नैराश्य, क्रोध, नीरसता, अनुत्साह, आलस्य-प्रमाद, घमंड और नकारात्मकता की धूमिल धूसर छाया भी अपनी जगह बनाने को आतुर दिखती है। समाज जीवन में खुशियां, उपलब्धियां शंखनाद करती प्रवेश करती हैं पर बाधाएं, संकट और समस्याएं कभी दस्तक देकर नहीं आतीं। वह अचानक बहुत आहिस्ते से हमारे जीवन में प्रवेश करके हमें चुनौती देती हैं। जो चुनौतियों को स्वीकार करते हैं, बाधाओं से लड़ना जानते हैं वे कोई ना कोई रास्ता निकाल कर इनसे पार निकल जाते हैं और समाज के लिए प्रकाश स्तंभ की भांति एक विकल्प प्रस्तुत करते हैं। कोरोना काल ऐसे ही दबे पांव घुस आया। जब हम शीतकाल से उबर मधुमास के सुवासित वातावरण में सांसें लेना शुरू ही किए थे। अबीर और गुलाल के माध्यम से अपनी खुशियों को साथियों के साथ बांटा ही था। रंगों के द्वारा जीवन के विविध पक्षों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की थी। कि तभी अचानक कोविड-19 संकट ने आकर हमारी नैत्यिक गतिविधियों पर विराम लगा दिया। यह वह समय था जब बच्चे वार्षिक परीक्षाओं की तैयारियों में व्यस्त थे और अगली कक्षाओं में जाने के सपने बुन रहे थे। पर कोरोना वायरस के वैश्विक संकट ने हमारी दैनंदिन जीवनचर्या और व्यवसायिक गतिविधियों पर अंकुश लगा दिया। विद्यालयों में भी ताले पड़ गये। शिक्षा, खासतौर से प्राथमिक शिक्षा के निरंतरता पर काले बादल संकट बन कर तैरने लगे। बच्चे और शिक्षक घरों में दुबकने को विवश हो गये। पर शिक्षकों ने इस चुनौती को स्वीकार कर बच्चों को आॅनलाईन शिक्षा की नवीन तकनीकी विधा से जोड़कर शिक्षण प्रक्रिया को गतिशील रखा। प्राथमिक शिक्षा किसी व्यक्ति के जीवन निर्माण की आधारभूमि होती है। बेहतर प्राथमिक शिक्षा ही व्यक्ति को संवारती और सुवासित करती है। बचपन में पढ़े-सीखे गये सबक उसे आजीवन न केवल याद रहते हैं बल्कि अंधेरे में रोशनी की भांति राह भी दिखाते हैं। प्राथमिक शिक्षा की बच्चों तक पहुंच के मामले में भारत की गिनती वैश्विक संदर्भों में एक पिछड़े देश के रूप में की जाती है। हालांकि निःशुल्क एवं अनिवार्य बालशिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 लागू कर 6 से 14 वर्ष के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का संवैधानिक संकल्प लिया गया है। लेकिन बच्चों की एक बड़ी संख्या स्कूलों से दूर होटलों, ईंट भट्ठों, कारखानों, खेत-खलिहानों में दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करने को मजबूर हैं। जिनके हाथों में कलम-किताब की जगह छेनी-हथौड़ी है और सिर पर तसला। कूड़ा बीनते बच्चों की पींठ पर लदी बोरी में मुरझाये सपने हैं जिनके साकार होने की कहीं कोई राह दिखाई नहीं देती। लोक व्याकुल है, पस्त है। रही सही कसर कोरोना संकट ने पूरी कर दी। आधे मार्च के बाद से ही स्कूल बंद हैं। वार्षिक परीक्षा में बैठे बिना ही बच्चे अगली कक्षाओं में प्रोन्नत कर दिये गये हैं। आॅनलाईन क्लास चलाये जा रहे हैं। पर शैक्षिक परिदृश्य में एक सवाल उभरता है कि जिनके घरों में नून-दाल-आटा नहीं है वे नेट डेटा कहां से लायेंगे। तो प्रस्तुत लेख में हम आॅनलाईन शिक्षण के वर्तमान हालात और विकल्प के तौर पर उभर रही भविष्य की संभावनाओं पर शिक्षकों के हवाले से विचार करेंगे।           

अरविंद सिंह (वाराणसी) ने आॅनलाईन शिक्षण से शिक्षकों के प्रति समुदाय की बदली सोच और नजरिए का जिक्र करते हुए उपयोगी बताया, ‘‘यह विधा संजीवनी की तरह उपयोगी है। इस नवीन विधा ने विद्यार्थियों को भय, डर, निराशा, हताशा से मुक्त किया है। साथ ही समाज में शिक्षकों की छवि को भी बेहतर किया है। जो समुदाय पहले शिक्षकों के प्रति नकारात्मक भाव रखता था, वह आज शिक्षकों के बच्चों के प्रति समर्पण और अपनेपन को देखकर अभिभूत है, गर्वित है। सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ रहे शिक्षकों ने कक्षाओं के परम्परागत स्वरूप को बदल दिया है। बच्चों को भी ई-सामग्री प्राप्त हो रही है और उनके स्वयं द्वारा अध्ययन के बहुत रास्ते खुल गये हैं। पर इसका पूर्ण विकल्प बनना सम्भव नहीं।’’ राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षिका आसिया फ़ारूकी (फतेहपुर) और कमलेश पांडेय (वाराणसी) आॅनलाईन शिक्षण विधा पर पर्याप्त शोध एवं प्रशिक्षण न होने के बावजूद किये जा रहे काम पर संतुष्टि जाहिर करते हैं, ‘‘यूट्यूब, दीक्षा एप, रेडियो पाठशाला, मिशन प्रेरणा, वाट्स ग्रुप आदि से बच्चों को लाभान्वित किया जा रहा है। ऑनलाइन शिक्षण विधा पर काम करने हेतु टीचर्स को कोई प्रशिक्षण नहीं प्राप्त हुआ था। बावजूद इसके शिक्षक-शिक्षिकाओं ने अपनी लगन और कल्पना से बच्चों को शिक्षा से जोड़े रखा। इस विधा पर न शोध-सर्वेक्षण है न व्यवस्थित ढांचा और न ही बच्चों तक पहुंच की सुगमता। बच्चों के बेहतर अधिगम स्तर का निष्पादन संभव होता नहीं दिखता क्योंकि बच्चों से प्रत्यक्ष संपर्क न होने से हम सीखने का आकलन नहीं कर पाते। शिक्षा में इतना तकनीकी प्रयोग पहली बार हुआ है। सभी बच्चों तक शिक्षा पहुंच भी नहीं पाई। अभी इस विधा पर यह शुरुआती परिचय ही कहा जाएगा दक्षता बाद में बढ़ेगी।’’             

राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षिका सुमन गुप्ता, झांसी ने बच्चों द्वारा लगातार मोबाईल स्क्रीन देखने से होने वाली हानियों की आरे संकेत करते हुए कहती है, ‘‘मोबाईल, टैबलेट, टीवी और कम्प्यूटर पर लगातार काम करने से बच्चों की आंखों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। आंखे लाल हो रही हैं, सूख रही हैं। रीढ की हड्डी और गर्दन में झुकाव आ रहा है। साथ ही बच्चे चिड़चिड़े और गुस्सैल होते जा रहे है। सचेत किया कि होमवर्क करते समय अभिभावकों को बच्चों पर नजर रखनी चाहिए अन्यथा वे गेम्स खेलने लगते हैं साथ ही गलत सामग्री को भी देखे जाने की संभावना रहती है।’’ रामकिशोर पांडे बांदा ऑनलाइन शिक्षण की सीमाओं की हदबंदी करते हुए इस विधा को भविष्य के विकल्प की संभावना को सिरे से खारिज करते हैं, ‘‘ऑनलाइन शिक्षण के सुखद अनुभव रहे हैं। विद्यालय बंद होने के बावजूद बच्चों से संपर्क बना रहा। यह शिक्षण का नया तकनीकी पक्ष है। इस पर काम करने से बच्चों और शिक्षकों की तकनीकी समझ बढ़ी है और अब हम सभी आसानी से ई-कंटेंट तैयार कर लेते हैं पर हम इस विधा को विकल्प के तौर पर पूर्ण रूप से स्थापित नहीं कर सकते क्योंकि इसकी सीमाएं हैं। यह प्रत्यक्ष कक्षा शिक्षण का विकल्प कभी नहीं बन सकता क्योंकि इसमें बच्चों के काम का मूल्यांकन तो किया जा सकता है पर सतत आकलन सम्भव नहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में नेट कनेक्टिविटी की भी सतत उपलब्धता नहीं रहती।’’ फतेहपुर से दीक्षा मिश्रा ने कहा कि ऑनलाइन शिक्षण शिक्षक और बच्चों दोनों के लिए एक नया अनुभव है। हमारे अभिभावकों के पास स्मार्टफोन नहीं है और जिनके पास हैं भी तो डाटा भरवाने की सामर्थ्य नहीं है। हम सभी बच्चों तक इस माध्यम से नहीं पहुंच सकते। इसमें कक्षा का रूप नहीं बन पाता। अभिभावकों  के काम पर चले जाने के कारण बच्चे समय से काम नहीं कर पाते।’’              

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आॅनलाईन शिक्षण की पहुंच सभी बच्चों तक नहीं है। परम्परागत स्कूली शिक्षा के साथ इसे प्रयोग किया जा सकता है पर पूर्ण विकल्प के रूप में नहीं। पर इस विधा ने सीखने-सिखाने की नवल राह खोली है जिस पर चलकर हम शिक्षण को हम सहज, बोधगम्य और बालहितैषी बना सकते है।                

लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास, भाषा एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं। सम्पर्क: शास्त्री नगर , अतर्रा-210201, बाँदा, उ0 प्र0।

मोबा – 09452085234

Author: aman yatra

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