आय, स्वास्थ्य और ज्ञान एक ऐसी त्रिकोणीय है जो पूरक है विकास की। इनमें से किसी एक के भी अभाव में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसी कड़ी में मोटे अनाज कई मायनो में अहम हैं। भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वैश्विक स्तर पर वर्ष 2023 को मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाया जाना स्वीकृत किया गया है। हम भारत को विकसित बनाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहें हैं। कहते हैं कि भविष्य में किसी देश के विकास की रफ़्तार देखनी है, उस देश के स्वास्थ्य की नब्ज देख लीजिए। यानी लक्ष्य की प्राप्ति में स्वास्थ्य का किरदार अहम होगा। जिसके लिए पोषण को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। वर्ष 2018 में कृषि मंत्रालय ने मोटे अनाजों (ज्वार, बाजरा, रागी, चीना, कुटकी आदि) को पोषक अनाजों की संज्ञा दी है। चूँकि इन अनाजों में सिर्फ़ कार्बोहाइड्रेट ही नहीं बल्कि ये लौह, जिंक, डायटरी फ़ाइबर आदि भरपूर होते हैं। यानी इनसे पेट भरता पोषण के साथ।
उल्लेखनीय है कि भारत वर्तमान में खाद्यान्न में अग्रणी देश होने के बावजूद भुखमरी सूचकांक में निचले पायदान पर है। हाल ही में जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक रिपोर्ट में 121 देशों में भारत को 107 वाँ स्थान प्राप्त हुआ है। यह रिपोर्ट भारत की कुपोषित तस्वीर दिखाती है। हरित क्रांति के आने से गेहूं, चावल आदि ने लोगों का पेट तो भरा लेकिन पोषण पीछे रह गया। ग़रीबी और बेरोज़गारी के बीच बढ़ती महंगाई में पेट भरे या पोषण देखें जैसी विरोधाभासी स्थिति बनी हुई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की पाँचवीं रिपोर्ट (2019-21) के अनुसार भारत की आधे से अधिक आबादी एनिमिया (खून की कमी) से पीढ़ित है। कुपोषित कोख कुपोषण को ही जन्म दे सकती है। बढ़ती जनसंख्या के दो ही स्वरूप होते है यदि इसे अवसर में न बदला जा सके तो यही ज़िम्मेदारी बन जाती है। यूएन की रिपोर्ट ‘विश्व जनसंख्या सम्भावना 2022’ ने अनुमान किया है कि अगले वर्ष भारत जनसंख्या के लिहाज़ से विश्व में प्रथम स्थान पर होगा। इसका ज़मीन एवं अन्य संसाधनों पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक है। स्वस्थ जनसंख्या ही अवसर में तब्दील की जा सकती है। बड़ा प्रश्न है इस आबादी को पोषण कैसे मुहैया हो? समय की माँग है ऐसे अनाजों की जो पोषक तत्वों से भरपूर और सर्व सुलभ हों।
कुछ दशक पहले तक अनिवार्यता मोटे अनाज हमारे भोजन का हिस्सा होते थे। चूँकि यह बहुपोषकीय होते हैं। पोषण के लिए तरह-तरह के अनाजों पर निर्भरता नहीं थी। इसका पाचन भी टिक कर होता है; इसलिए मेहनतकश वर्ग की पहली पसंद थी। बदलते क्रॉप पैटर्न ने इनकी उपलब्धता सीमित कर दी। इनकी बढ़ी क़ीमतों ने इन मोटे अनाजों तक पहुँच से दूर कर दिया। इनकी जगह आए गेहूं, चावल ने पेट तो भरा लेकिन पोषण छीन लिया। जिसकी परिणति ग़ैर संक्रामक बीमारी जैसे डायबिटीज़, हार्टअटैक, कैंसर, मोटापा आदि हर घर में प्रवेश कर गईं। मोटे अनाज इनके उपचार एवं बचाव का बेहतर विकल्प हो सकते हैं।
राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए जा रहे प्रयास प्रगतिशील हैं। नीतियों के माध्यम से किसानों को इन फसलों लिए आकर्षित किया जाए। माँग उत्पादन को प्रोत्साहित करती है। इसलिए लोगों को इन अनाजों के गुणों के बारे जागरूक किया जाए। इन अनाजों की खपत वृद्धि में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की अहम भूमिका हो सकती है। भारत, जिसकी जलवायु इन फसलों के अनुकूल है। यह देश की सेहत सुधारने के साथ विदेशी व्यापार में बढ़त लेने का बेहतर विकल्प बन सकती है।
लेखक- मोहम्मद ज़ुबैर
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