भारत के समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में ऐसे महनीय व्यक्तित्व सर्वदा विद्यमान रहे हैं जिनके जीवनमूल्यों एवं कृतित्व से राष्ट्र गौरवान्वित हुआ है, आभामय हुआ है। जिनकी नवोन्मेषी एकात्म दृष्टि ने सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक क्षेत्रों में नवल पथ उद्घाटित की है। भारत माता के इन अमर साधकों की श्रृंखला में संत कबीर, गुरु नानक, दादू, संत तुलसीदास, सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, संत तिरुवल्लुवर, संत टुकड़ो जी एवं महर्षि रमण जैसे भक्त कवि और समाज सुधारक श्रद्धास्पद हैं तो उसी पुष्पमाला में गुंथे नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर प्रभृति पुष्प अपने सुवासित कर्ममय जीवन से लोक का मार्ग प्रशस्त किया है। इनमें भीमराव आम्बेडकर की बुद्धिमत्ता, वाक्चातुर्य और मानवीय संवेदना उन्हें एक विशेष स्थान प्रदान करती है। वह सामाजिक क्रांति के प्रबल पक्षधर हैं और दृढ आधार भी।
भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 में महू में पिता रामजी मालोजी सकपाल एवं मां भीमाबाई की 14वीं एवं अंतिम संतान के रूप में हुआ था। रामजी सकपाल ब्रिटिश भारतीय सेना में कर्मी थे और शिक्षा के महत्व से सर्वथा परिचित भी। इसीलिए उन्होंने अपनी जाति के अन्य बालकों की तरह भीमराव को सेवा-टहल और अन्य कामों में लगाने की बजाय शिक्षा दिलाने पर जोर दिया। हालांकि तत्कालीन समाज में शिक्षा उच्च वर्गों तक ही सीमित थी। विद्यालयों के कपाट अछूत बच्चों के लिए बंद थे। अस्पृश्य समाज के बच्चों में पढ़ने का चलन वैसे भी न था, पर भीमराव ने अपनी जाति के बच्चों से विपरीत स्कूल में पढ़ाई शुरू की। हालांकि वहां का व्यवहार मानवीय एवं अपमानजनक था। ऐसे बच्चों को कक्षा में दरवाजे के पास बैठाया जाता या बाहर बरामदे में। जलपात्रों का प्रयोग करने एवं स्पर्श करने की सख्त मनाही थी। पानी पीने के लिए चपरासी को बोलना पड़ता जो बालक भीम के अंजलि में पानी ऊपर से डालता। इससे पानी की प्यास भले ही बुझ जाती पर अपमानजनक व्यवहार का निशान मन में रोज ही अंकित हो़ता। और इस व्यवहार ने बालक के अंदर शिक्षा प्राप्त करने की ललक जगा दी, जो दिनानुदिन प्रज्ज्वलित होती रही। आगे की शिक्षा गवर्नमेंट हाई स्कूल में हुई। इस स्तर पर उनके समाज में किसी बालक द्वारा पहली बार प्रवेश लिया गया था। इसी अवधि में 1906 में 15 वर्ष की आयु में रमाबाई से उनका विवाह हो गया। गायकवाड महाराजा द्वारा सहयोग करने और तीन वर्ष तक छात्रवृत्ति देने से जुलाई 1913 में उच्च अध्ययन के लिए भीमराव न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय चले गए। 1915 में एम.ए. पूर्ण किया। वापस आकर बड़ौदा महाराजा गायकवाड की सेवा में लगे और सैन्य सचिव के रूप में काम शुरू किया। लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण काम छोड़ना पड़ा। परिवार पालन एवं आजीविका के लिए लेखाकार, शिक्षक एवं वित्त निवेश सलाहकार के रूप में भी हाथ आजमाएं पर भीमराव की जाति उनकी प्रतिभा के आगे-आगे चलती रही और समाज ने महत्त्व नहीं दिया। इसी बीच 1916 में लंदन के स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के अध्ययन एवं शोध हेतु प्रवेश लिया। 1918 में मुंबई के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति प्राप्त की। किंतु साथी अध्यापकों के जातिगत भेदभाव से मन कसकता रहा। यही समय था जब भीमराव समाज में दलित एवं शोषित वर्ग के स्थिति को लेकर गंभीर चिंतन कर रहे थे। समाज जागरण के लिए 1920 में साप्ताहिक पत्र मूकनायक का प्रकाशन प्रारंभ किया। जिसमें लेखों के माध्यम से समाज में समता, बौद्धिक चेतना एवं एकात्मता हेतु सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंका। वह शोषित, पीड़ित, दलित का संघर्षपूर्ण स्वर बनकर उभरे। उनके सपनों में दलित समाज की आर्थिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा तथा राजनैतिक क्षेत्र में गरिमामय स्थान प्राप्त कराने के चित्र थे। मूकनायक के अलावा समता, बहिष्कृत भारत, जनता एवं प्रबुद्ध भारत नामक अन्य पत्रिकाएं भी निकालीं, जो दलित चेतना की संवाहक और दलित विमर्श को मुख्य फलक में संवाद की विषय वस्तु बनाने में समर्थ हुईं। 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन कर दलित समाज के संगठन का बीज बोया। इसी समय भीमराव का राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण होता है। 1926 में गवर्नर द्वारा बांबे विधान परिषद के सदस्य के रूप में नामित किए गए। जहां आपने लगभग 10 वर्ष तक अपनी भूमिका का निर्वहन किया। भीमराव अस्पृश्य समाज में स्वाभिमान की प्रतिष्ठा के लिए आंग्ल मराठा युद्ध में वीरगति प्राप्त महार सैनिकों की स्मृति में कोरेगांव में 1 जनवरी 1927 को एक स्वाभिमान सभा का आयोजन कर शहीदों के नाम उत्कीर्ण शिलालेख लोक को समर्पित किया। आज यह भीम कोरेगांव शहीद स्थल नाम से लोक प्रसिद्ध दलित चेतना का प्रेरक स्थल बन चुका है।
भीमराव अंबेडकर यह समझ चुके थे कि अछूतों के लिए अलग से कोई राजनीतिक व्यवस्था किए बिना उद्धार संभव नहीं है। इसीलिए अगस्त, 1930 में प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सहभागिता कर शोषित वर्ग की सुरक्षा और सामाजिक भेदभाव से मुक्ति के मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त किए तथा 1931 के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधी की असहमति एवं विरोध के बावजूद अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था तय करने की मांग रखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर 1932 में घोषणा कर दी। इस व्यवस्था के अंतर्गत अछूतों को दो वोट देने का अधिकार मिला। जिसमें एक वोट से सामान्य वर्ग एवं दूसरे वोट से दलित प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता मिली। लेकिन गांधी जी द्वारा पुणे के यरवदा जेल में इसके विरुद्ध आमरण अनशन कर देने से देश की गांधी के प्रति संवेदना को देखते हुए आंबेडकर को पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा, जिसमें पृथक निर्वाचन की व्यवस्था भंग कर दी गई। किंतु आंबेडकर ने सूझबूझ से दलित प्रतिनिधि सीटों की संख्या 78 से बढ़ाकर 148 कर ली। आंबेडकर ने पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर बेमन से किए थे और इसको वह कभी सहजता से नहीं ले पाए। 1935 में पत्नी रमाबाई का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। 1936 में आंबेडकर ने अपना स्वतंत्र राजनीतिक दल लेबर पार्टी बनाई जिसने 1937 में केंद्रीय आम चुनाव में 13 सीटों पर विजय प्राप्त की। आंबेडकर 1942 तक विधानसभा के सदस्य एवं विपक्ष के नेता रहे। यह वह दौर था जब संपूर्ण विश्व द्वितीय विश्वयुद्ध की आग में झुलस रहा था और अंग्रेजी सत्ता की पकड़ भारत में कमजोर हो रही थी। इसी समय संविधान सभा का निर्माण हुआ जिसमें मुस्लिम लीग शासित बंगाल से चुनकर आंबेडकर संविधान सभा में पहुंचे और प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में चयनित हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आंबेडकर देश के पहले विधि एवं कानून मंत्री का पद निर्वहन किया लेकिन हिंदू कोड बिल के विरोध के चलते मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दे दिया। 1952 का लोकसभा चुनाव लड़ा और हारे किंतु राज्यसभा पहुंचने में सफल रहे। 1954 के भंडारा उपचुनाव में हार कर तीसरे स्थान पर रहे।
डॉ. आंबेडकर अपने समाज के लिए एक स्वाभिमान और सम्मान का जीवन जीने का मंच प्रदान करना चाहते थे। हिंदू धर्म के प्रति उनका मोह और आस्था भंग हो चुकी थी। उन्होंने तमाम धर्मो, पंथें का अध्ययन कर पाया कि बौद्ध धर्म में ही व्यक्ति की पहचान एक इंसान के रूप में सर्वोपरि है। जहां उसे मानवीय गरिमा एवं संवेदना के साथ जीने का अधिकार सुरक्षित है और इसीलिए अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। नवंबर 1956 में काठमांडू में वैश्विक बौद्ध धम्म आयोजन में दिया गया आप का भाषण बौद्ध और कार्ल मार्क्स सार्वकालीन भाषणों में सिरमौर है। आप बहुभाषा विज्ञ थे। मराठी के अलावा हिंदी, पालि, कन्नड, संस्कृत, गुजराती, अंग्रेजी, जर्मन एवं फारसी में महारत हासिल थी। आपने समाज के लिए संदेश दिया, ‘‘शिक्षित बनो, संगठित बनो, और संघर्ष करो’’। आंबेडकर कहते थे कि ज्ञान, स्वाभिमान और शील ही मेरे उपास्य हैं। समय के तमाम झंझावातों से जूझता यह नंदादीप क्षीण होता जा रहा था और काल के क्रूर कर निकट आते जा रहे थ।और ऐसी ही एक कालरात्रि 6 दिसंबर 1956 को निद्रा में ही डॉ. भीमराव आंबेडकर की जीवन ज्योति बुझ गई। लेकिन कोटि उरों में जल रही उनके विचारों की ज्योति बाबासाहब आंबेडकर को सदा जीवित जाग्रत रखेगी।
सम्प्रति – लेखक भाषा शिक्षक हैं और विद्यालयों को आनन्दघर बनाने के अभियान पर काम कर रहे हैं।
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