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सम्पादकीय

सरकारी फरमानों ने बेसिक शिक्षा का कर दिया बेड़ा गर्क

सरकारी फरमानों ने परिषदीय स्कूलों की शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया है शिक्षक अब बच्चों को पढ़ाते नहीं बल्कि विभागीय ड्रामेबाजी के आदेशों के पालन में उनका पूरा समय निकल जाता है। सरकार परिषदीय स्कूलों में ऐसी ऐसी योजनाएं संचालित कर रहा है जिसका की बेसिक शिक्षा से कोई भी लेना देना नहीं, इतना ही नहीं इन स्कूलों में आए दिन मीटिंग कहीं प्रशिक्षण होते रहते हैं।

सरकारी फरमानों ने परिषदीय स्कूलों की शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया है शिक्षक अब बच्चों को पढ़ाते नहीं बल्कि विभागीय ड्रामेबाजी के आदेशों के पालन में उनका पूरा समय निकल जाता है। सरकार परिषदीय स्कूलों में ऐसी ऐसी योजनाएं संचालित कर रहा है जिसका की बेसिक शिक्षा से कोई भी लेना देना नहीं, इतना ही नहीं इन स्कूलों में आए दिन मीटिंग कहीं प्रशिक्षण होते रहते हैं। इतने से भी भला कहां होने वाला शिक्षकों को ऑनलाइन प्रशिक्षण भी लेना होता है जिसमें कई कई घंटे शिक्षकों को मोबाइल पर लगे रहना होता है। वर्तमान में शिक्षकों पर शैक्षणिक कार्यों के अलावा अन्य कार्यों को करने का ऐसा दबाव है कि वह यह तक नहीं समझ पा रहे हैं कि उनका मूल कार्य है क्या, उन्हें रखा किस लिए गया है। मूल रूप से शिक्षकों का मूल काम पढ़ाना है लेकिन आज शिक्षकों को पढ़ाने की जगह अन्य कार्यों में धड़ल्ले से लगाए जा रहा है। अगर देखा जाए तो साल भर शिक्षक अपने पढ़ाने के मूल कार्य के अलावा अन्य कार्यों में अधिक व्यस्त रहते हैं। हैरत कि बात है कि शिक्षकों से अन्य कार्य कराने के लिए कई बार सिर्फ मौखिक स्तर पर या सोशल मीडिया स्तर पर ही आदेश जारी होते हैं जिससे शिक्षक अपनी व्यथा किसी को बता भी नहीं सकता। वाहियात के आदेशों से शिक्षक शिक्षा की पटरी से हट रहे हैं बच्चों के भविष्य की भीषण हादसे में मौत हो रही है।

मिड डे मील की पूरी जिम्मेदारी प्रधानाध्यापक व प्रभारी प्रधानाध्यापक की ही होती है। इसके अतिरिक्त विभाग द्वारा विद्यालय प्रबंध समिति के माध्यम से बच्चों को दिए जाने वाली अनेक सुविधाएं जैसे स्कूल यूनिफार्म, जूते मोजे, बैग, पुस्तकें स्कूल के अन्य संसाधनों की खरीद-फरोख्त एवं बांटने की जिम्मेदारी भी अध्यापक की ही है। यह प्रशासनिक कार्य है न कि शिक्षा से जुड़े काम हैं और तो और ग्रामीण स्तर पर संचालित की जाने वाली अनेक योजनाओं में अध्यापक का ही सहारा लिया जाता है। चाहे ग्रामीणों को स्वास्थ्य विभाग द्वारा दिया जाने वाला टीकाकरण हो या बच्चों एवं गर्भवती स्त्रियों को आयरन एवं कैल्शियम की गोली बांटनी हो, यहां तक कि पेट के कीड़ों की गोलियां भी अध्यापक को ही बांटनी होती हैं। गैर-शैक्षणिक कार्य में अधिकतर स्कूल प्रबंधन, डेटा संग्रह और दस्तावेजीकरण शामिल होता है और कई बार इस कार्य में दोहराव और मात्रा ही अधिक होती है। हमारे टीचर ही शिक्षा की नींव बनाते हैं। यदि हम बच्चों को क्वालिटी स्कूल एजुकेशन दिलाना चाहते हैं तो टीचरों को टीचर ही रहने दिया जाना चाहिए। उन्हें शिक्षा पर फोकस बनाए रखने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए।

हमारे शिक्षकों को जब तक गैर शैक्षणिक कार्यों में फंसाकर रखा जाएगा तो उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षण की उम्मीद बेमानी है। हमारे शिक्षक दबाव में रहते हैं क्योंकि गैर शिक्षण कार्यों से जुड़े हर एक आदेश का पालन कर उनको नौकरी भी बचानी होती है। इलेक्शन ड्यूटी में तो अनेक महिला अध्यापकों की हालत बहुत खराब हो जाती है। क्या ऐसी गैर शिक्षण गतिविधियों में महिला अध्यापकों को राहत की जरूरत नहीं है ? पचास की उम्र पार कर चुकी महिलाओं को फील्ड में गैर शिक्षण गतिविधियों से दूर रखना ठीक लगता है। याद रहे गैर शिक्षण कार्यों से जब स्कूल शिक्षा व्यवस्था बाधित होती है इसका असर अंतत: बच्चों की दी जाने वाली शैक्षणिक गुणवत्ता पर भी पड़ता है। शैक्षणिक समयावधि के बाद शिक्षकों से अन्य और तरह के कार्य कराया जाना क्या नैतिकता होगी ? क्या यह मानवीय दृष्टिकोण होगा ? क्यों न हम अपने शिक्षकों को गैर शिक्षण कार्यों के डर से निकालने की पहल करें।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह स्वीकार किया गया है कि गैर-शैक्षणिक कार्य शिक्षकों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। इसमें यह भी कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार चुनाव ड्यूटी और सर्वेक्षण करने से संबंधित न्यूनतम कार्यों के अलावा शिक्षकों को स्कूल के समय के दौरान ऐसी किसी भी गैर-शैक्षणिक गतिविधि में भाग लेने के लिए न तो अनुरोध किया जाएगा और न ही अनुमति दी जाएगी जो शिक्षक के रूप में उनकी क्षमताओं को प्रभावित करती हो। हमें प्रशासनिक कार्य करने के लिए स्कूलों में अधिक से अधिक गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों की भर्ती करने की आवश्यकता है।

ऐसे मामलों में जहां दस्तावेजीकरण ऑनलाइन है तब ऑफलाइन दस्तावेजीकरण को समाप्त किया जाना चाहिए। ग्रामीण स्कूलों में, जहां इंटरनेट/आईटी कनेक्टिविटी नहीं है या सीमित है, इन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिए और ऑफलाइन दस्तावेजीकरण की अनुमति दी जा सकती है। जहां पहले से ही डेटा उपलब्ध है, वहां स्कूलों को इसे संकलित करने और भेजने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए। इसके अलावा शिक्षकों को अन्य गैर-शैक्षणिक गतिविधियों के बजाय मुख्य रूप से कक्षा में पढ़ाई संबंधी कार्यों के लिए ही जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

आज शिक्षक अन्य कार्यों के भार तले दब गया है तथा इनके पूर्ण न हो पाने पर कार्यवाही के डर के कारण वह अपने मूल कार्य से दूर ही रहता है। अत: अब वह समय आ गया है कि शिक्षक को केवल शिक्षण और शिक्षा से जुड़े कार्य करने दिए जाएं तथा अन्य कार्यों हेतु कोई और व्यवस्था कर ली जाए। फालतू की मीटिंग और प्रशिक्षणों का कोई भी मतलब नहीं है क्योंकि शिक्षक पहले से ही प्रशिक्षित हैं और कई एग्जाम क्वालीफाई करने के बाद ही शिक्षक बने हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि विभाग सरकारी धन के बंदर बांट के लिए ऐसी गतिविधियों का संचालन कर रहा है। अगर उसे बच्चों के भविष्य की चिंता होती तो वह बे-बुनियादी योजनाएं कदापि संचालित न करता।

राजेश कटियार

Author: aman yatra

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