सफलता के पैमाने टूट जाते हैं और तमाम प्रश्न दिमाग़ में कौंदने लगते हैं, जब तथाकथित सफल व्यक्ति अपने जीवन को मझधार में ही समाप्त कर देता है। बुद्धिमत्ता धूल चाट जाती है, जब हम ठग लिए जाते हैं या किसी के द्वारा इस्तेमाल कर लिए जाते हैं। यहाँ तक कि ठोक-बजाकर किए गए रिश्ते भी, नदी के दो छोर बन जाते हैं। सारी सफलता चरमरा जाती है; जब घर, समाज, दोस्त-यार से सामंजस्य नहीं बैठा पाते हैं। और अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं; स्वयं में खुद को नहीं ढूँढ पाते। हद तो तब हो जाती है जब बुद्धिमत्ता के दम पर निर्णय तो कर लेते हैं, लेकिन हम हमारे टुकड़े करने वाले को भी समझ नहीं पाते हैं। यानी यह कहने में ज़रा भी संदेह नहीं कि बुद्धिमत्ता के आगे कुछ तो है?
बुद्धिमान व्यक्ति के पास तर्क-वितर्क करने की क्षमता होती है। तथा वह निर्णय लेने में सक्षम हो सकता है। बुद्धि के बल पर बहुत कुछ हासिल भी कर सकता है। लेकिन यह दावा नहीं किया जा सकता कि जीवन के हर पड़ाव में सफल ही सिद्ध होगा। चूँकि हम जीवन जीने की कला को गणित की कसौटियों से नहीं सीख सकते हैं। जीवन जीने की कला आती है, ज्ञान से। सुकरात के अनुसार ज्ञान वही है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व में उतर जाए। जो सम्भव होता है भावनात्मक बुद्धिमत्ता से। समस्या तब आती है, जब हम स्वयं की या दूसरों की भावनाओं को समझ नहीं पाते हैं या अपने भाव दूसरों को समझा नहीं पाते हैं। दुनिया का असली खिलाड़ी वह है जो भावनात्मक रूप से परिपक्व है। यह भावनात्मक मज़बूती खुद की परिस्थितियों से जूझकर स्वयं या दूसरों के अनुभवों से सीखी जाती है। चूँकि जीवन छोटा है, सारे प्रयोग स्वयं के जीवन में नहीं किए जा सकते।
जन्म के समय व्यक्ति सामाजिक या समाज विरोधी नहीं होता बल्कि समाज से तटस्थ होता है। एक पूरी व्यवस्था काम करती है उसे सामाजिक खाँचे में फ़िट बैठाने के लिए। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम व्यवस्था को ही ओवरटेक कर जाते हैं। और धैर्य, सहनशीलता, साहचर्य, सहानुभूति जैसे मूल्य हमारी सीखने की परिधि से बाहर हो जाते हैं। और हम मनुष्य से कब मशीन बन जाते है ये तब समझ आता है, जब हम संबंधों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाते। सिर्फ़ बुद्धिमत्ता के बल पर अर्जित उपलब्धियाँ जीवन की वास्तविक सफलता नहीं बन पाती हैं। ग़ौरतलब है कि परिवार में परवरिश की अति सजगता भी बच्चों के जीवन को जोखिम में ले जा रही है। बच्चों की हर ज़रूरत को पूरा करते रहना, उनकी सारी ज़िम्मेदारियाँ खुद ले लेना। ये उनके जीवन प्रशिक्षण को छीन लेता है। जो उन्हें बचपन ही में मिलना चाहिए था। सर्वविदित है एक नवजात पक्षी कभी उड़ान नहीं भर सकता यदि उसे घोंसले से न गिराया जाए।
शिक्षण संस्थान की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, व्यक्ति को तराशकर सामाजिक खाँचे में बैठाने की। शिक्षण संस्कृति विकृत हो चली है। अंकों की अंधी दौड़ बच्चों को रटने वाली मशीन बनाने पर जुटी हैं, वे भूलते जा रहे हैं कि मशीन बुद्धिमान हो सकती है, लेकिन मानवीय सम्बंध बनाने में सक्षम नहीं होती है। याद रहे कटर मशीन के लिए लकड़ी या इंसान में कोई फ़र्क़ नहीं। चूँकि इनमे भावना शून्य है। जबकि सम्बन्धों के लिए भावना का होना ज़रूरी है।
मानव को समझना जटिल है। चूँकि वह शब्दों एवं भावों के खेल में खिलाड़ी होता है। भावनात्मक परिपक्वता के अभाव व्यक्ति दूसरों के दोहरे चरित्र को समझ नहीं पाता। कई बार किसी के द्वारा कहे जा रहे शब्दों के उलट भाव एकदम विपरीत होते हैं। और वह शब्दों में उलझकर बेहद जोखिम भरे निर्णय कर बैठता है। जबकि भावनात्मक रूप से परिपक्व व्यक्ति मौन की भाषा को भी बखूबी समझता है। कब कितनी प्रतिक्रिया करनी है, उत्पन्न विचारों एवं भावों को कब दबा देना हैं; बखूबी जानता है। यह खूबी उसके सम्बन्धों को हमेशा बनाए रखती है।
बेहतर होगा शिक्षण संस्थानों में भावनात्मक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। जैसे कि वर्तमान में डेनियल गोलमैन द्वारा सुझाए गए मॉडल को अमेरिकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। जिसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। अधिकांश विद्यार्थियों का अकादमिक निष्पादन सुधरा है तथा दुर्व्यवहार के मामलों में 28 प्रतिशत की कमी आई है। व्यक्ति को निरंतर स्वयं को प्रशिक्षित करते रहना चाहिए। स्वयं को सुझाव देना एवं मूल्यांकन करते रहना भी आवश्यक है। वंचितों से मिलना, अजनबियों से बात करना भी हमें भावनात्मक रूप से मज़बूत बनाता है। हमें दूसरों के अनुभवों से भी सीखना चाहिए। चूँकि इस जीवन की एक गलती अंतिम साँस साबित हो सकती है। जीवन बहुमूल्य है, इसके मूल्य को समझें।
लेखक – मोहम्मद ज़ुबैर, कानपुर वाले
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