हर तारीख़ का अपना इतिहास और महत्व होता है। इसी प्रकार 10 जनवरी हिंदी प्रेमियों के लिए काफ़ी अहम है।प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भीबीती तिथि को विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाया गया। जिसका उद्देश्य था कि हिंदी का आंतरिक देश के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर प्रचारप्रसार कैसे हो? ताकि हिंदी भाषा का वैश्विक महत्व और बढ़े; और लोगों में हिंदी सीखने समझने की ललक बढ़े। किसी भी भाषा के प्रचार-प्रसार के सांकेतिक एवं मनोवैज्ञानिक लाभ होते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्तमान भारत, विश्व महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर है। हिंदी इसवैश्विक प्रतिस्पर्धा को आसान करेगी। चूँकि संस्कृति की मुख्य वाहक भाषा होती है; यह प्रयास सांस्कृतिक कूटनीति के ज़रिए वैश्विक राजनीतिमें दमख़म बनाए रखने में मदद करेगा। ध्यातव्य है कि हिंदी पूरे विश्व में बोली जाने वाली अंग्रेज़ी एवं मंदारिन के बाद तीसरी सबसे बड़ी भाषाहोने के बावजूद संयुक्त राष्ट्रसंघ में इसे आधिकारिक दर्जा प्राप्त नहीं है। यह कदम संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को अधिकारिक भाषा का दर्जा दिलानेमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।जिसके लिए भारत सरकार लम्बे समय से प्रयासरत है।
यूँ तो वैश्विक स्तर पर हिंदी की संवृद्धि का प्रकाश फैल रहा है यह भारत के अतिरिक्त अन्य सात देशों जैसे कि सूरीनाम, थाईलैंड, सिंगापुरआदि में राजभाषा या सहराजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है। यह हिंदी भाषियों के साथ हमारे देश के लिए भी बड़ी उपलब्धि हैलेकिन इतना पर्याप्त नहीं अभी और प्रयास की आवश्यकता है। आंतरिक परिदृश्य में भारत सांस्कृतिक वैविध्य के रंगो से भरा राष्ट्र है, और हिंदीअपने देश के स्वर्णिम अतीत का हिस्सा रही है। राष्ट्र निर्माण भी में हिंदी के अहम योगदान को नहीं भुलाया जा सकता; जिसने पूरे देश के लोगोंको एक सूत से बांधकर स्वाधीनता की राह को आसान किया था। और आज भी राष्ट्र एकता का आधार बनी हुई है। इसी तरह देश की अनेकमोती रूपी भाषाएँ एवं बोलियों को एक माला में पिरोने का काम करती आयी है। लेकिन अगर आज़ादी के बाद की स्थिति पर गौर करें तोनिराशा हाथ लगती है। हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जिनका संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी में दिया गया भाषण -” भारत के बाहरहिंदी बोलना आसान है लेकिन भारत में नहीं।” एक तरफ तो हिंदी के विकास को दिखता तो दूसरी तरफ़ प्रश्नचिन्ह भी लगाता। कारण रहा- नतो हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा बन पाई ओर न ही संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद व्यावहारिक रूप में एक मात्र राजभाषा। जबकि महात्मागांधी का मत था- “ हिंदी ही हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।” इसके अपने पर्याप्त तर्क भी है- भारत के 10 राज्यों कीप्राथमिक भाषा हिंदी है जोकि देश की आबादी का 42 प्रतिशत हैं तथा 30 प्रतिशत लोगों की हिंदी द्वितीयक भाषा है।
कुछेक प्रतिशत लोगों कोछोड़कर लगभग सभी भारतीय हिंदी पढ़ने व समझें में सक्षम हैं।अफ़सोस है कि विरोध के चलते आज तक हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बनपाई। स्वाधीनता आंदोलन के समय तो सभी क्षेत्रों के नेताओं ने हिंदी के पक्ष में खुलकर राय रखी जैसे की पंजाब में लाजपतराय, महाराष्ट्र मेंसावरकर एवं तिलक, गुजरात में सरदार पटेल, दक्षिण भारत में सी राजगोपालचारी आदि। लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आंतरिकराजनीतिक जटिलताओं के चलते हिंदी राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर विरोध होने लगे। और आज़ादी के बाद से अब तक ऐसे हालात नहीं बन पाए किप्रभावी रूप से राष्ट्रभाषा का मुद्दा उठाया जा सका। एक कारण यह भी रहा की 1967 गठबंधन दौर शुरू हो गया। सारी राजनीतिक पार्टियाँ इसमुद्दे से बचती रहीं।
इसी प्रकार राजभाषा के मुद्दे पर आज़ादी के तुरंत बाद के समय को संक्रमण काल माना संविधान सभा में सहमति बनी कि आगामी 15 सालोंतक सरकारी कार्यों में हिंदी के साथ अंग्रेज़ी की मदद ली जा सकती है। तथा 1965 के बाद से स्वतः सरकारी कामकाज की हिंदी एक मात्रराजभाषा होगी। समय समाप्ति के कुछ वर्ष पूर्व ही हिंदी विरोधी आंदोलन होने लगे स्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि अंग्रेज़ी के यथावत प्रयोग को संविधान संशोधन के ज़रिए भविष्य के लिए स्वीकृति दे दी गई। यह निर्णय कुछ यूँ रहा जैसे कि हिंदी रूपी वृक्ष को ज़मीन से उखाड़ कर गमले मेंलगा दिया गया हो। यानी भाषा तो रही लेकिन विकास सम्भावनाएँ सीमित गईं। और व्यवहार में शिक्षा, स्वास्थ्य, क़ानून आदि जीवन का हरक्षेत्र अंग्रेज़ीमय हो चला। जिसके चलते हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं बन सकी। यही नहीं अब प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के माध्यम केरूप में भी तेज़ी से गिरावट होती जा रही है। अधिकांश भारतीय परिवारों में हिंदी भाषा का प्रयोग होता है। जबकि शुरुआती शिक्षा में बढ़ताअंग्रेज़ी माध्यम; यह विरोधाभास बच्चों में सीखने की क्षमता को बाधित कर रहा है। इसका परिणाम विज्ञान, तकनीकी आदि क्षेत्रों में मौलिकचिंतन हतोत्साहित हो रहा है। कारण है व्यक्ति सपने मातृभाषा में ही देखता है यदि उसे उसी भाषा में पूरा करने का अवसर मिले तो सफलता कीसम्भावना कई गुना बढ़ जाती है। इसी क्रम में अदालतों में अंग्रेज़ी प्रयोग के चलते अक्सर ऐसा होता है मुवक्किल को यह भी पता नहीं चलपाता की उसका वकील अदालत के सामने उसका क्या पक्ष रख रहा है; जबकि भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सभी को समझ आए। उल्लेखनीय हैकि भाषा में ही संस्कृति बसती है। अंग्रेज़ीकरण के चलते अपनी संस्कृति ही परायी लगने लगी, जीवन मूल्य ही संदेह के घेरे में आ गये। जिसकेचलते अनेक समस्याएँ गम्भीर रूप लेती जा रहीं जैसे कि वृद्धजनों के अकेलेपन की समस्या।
वर्तमान वैश्विक युग में सभी भाषाओं का अपना महत्व है। अहिंदी जैसे कि अंग्रेज़ी के विरुद्ध जिहादी या कट्टर मानसिकता तो ठीक नहीं हैलेकिन मातृभाषा यानी हिंदी या अपने देश की क्षेत्रीय भाषाओं को कुचलकर किसी अन्य बाह्य भाषा पर निर्भरता तार्किक नहीं है। लेकिन वर्तमानभारतीय परिदृश्य को देखते हुए लगता है कि अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ रहा है यदि सार्थक हस्ताक्षेप नहीं किए गए तो आगे आने वाले 400 से 500 वर्षों में अंग्रेज़ी सम्पर्क भाषा होने का दावा कर सकती है। ध्यान रहे जब भाषा समाप्त होती है उसके साथ सोंच का एक तरीक़ा समाप्त हो जाताहै यानी विचारधारा समाप्त हो जाती है। साथ ही मूल्य एवं संस्कृति प्रभावित होती है। इसलिए आवश्यक है कि सरकार एवं समाज इस मामले मेंगम्भीर हस्ताक्षेप करे।
मोहम्मद ज़ुबैर
MSW(Gold Medalist)
इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
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