दोहरे संकट से निपटने के लिए देश अपने-अपने स्तर पर मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों में हेरफेर कर अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। देशों की संरक्षणवादी नीतियाँ आर्थिक भूमंडलीकरण पर प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं।
कोविड-19 महामारी के कारण मंदी की गिरफ़्त में आई अर्थव्यवस्थाओं में अभी गति आई भी न थी। पूरे विश्व में आपूर्ति के टूटे तार अभी पूरी तरह जुड़े भी न थे। जारी भू-राजनीतिक संकट यानी यूक्रेन पर रुस के हमले ने बाधित खाद्यान्न, ऊर्जा जैसी आपूर्ति शृंखला की गम्भीरता को और बढ़ा दिया। यदि अस्थिरता न्यून नहीं होती तो इसकी त्रासदी की तीव्रता कोरोना जनित जोखिम से कहीं अधिक घातक हो सकती है। जिसके संकेत भी दिखने भी लगे है। कई देशों की अर्थव्यवस्थाएँ डूबने की कगार पर है। दक्षिण एशिया में अपेक्षाकृत समृद्ध माना जाने वाला श्रीलंका में अराजक स्थितियाँ उत्पन्न हो गईं। मंदी और महंगाई के मिश्रित दौर में अर्थव्यवस्था के सिद्धांत एवं मान्यताएँ कारगर नहीं मालूम हो रहे है। जैसे कि फ़िलिप वक्र महंगाई में बेरोज़गारी कम होने की बात करता है लेकिन वर्तमान में महंगाई और बेरोज़गारी दोनों बढ़ती जा रही हैं। इस दोहरे संकट से निपटने के लिए देशों द्वारा नए-नए प्रयोग किए जा रहे है। यहाँ तक कि देशों ने आयात-निर्यात पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए।
भारत में तरलता की कमी के कारण बाधित माँग को पुनः वापस लाने के लिए बजट 2022-23 के लिए पूँजीगत खर्च को 35.4 फ़ीसदी बढ़ाकर 7.50 लाख करोड़ कर दिया गया। दूसरी तरफ़ बढ़ी हुई महंगाई चिंतित कर रही है। अप्रैल में खुदरा महंगाई 7.79 प्रतिशत रही तथा थोक महंगाई दर 15.08 प्रतिशत पर पहुँच गई। खुदरा महंगाई दर भारतीय रिसर्व बैंक द्वारा तय सीमा 4 प्रतिशत से कुछ कम दोगुनी है। यही वजह है कि आरबीआई ने रेपो रेट में 40 आधार अंक यानी 0.40 प्रतिशत की वृद्धि कर दी, जो बढ़कर वर्तमान में 4.4 प्रतिशत हो गई। ताकि बढ़ी ब्याज दर से तरलता को कम करके महंगाई को नियंत्रित किया जा सके। ये कैसा विरोधाभास है? एक तरफ़ सरकार तरलता बढ़ाकर माँग पैदा करना चाह रही ताकि जीडीपी और रोज़गार बढ़ाए जा सके दूसरी तरफ़ आरबीआई तरलता कम करने के प्रयास कर रही। ध्यातव्य है, रेपोरेट अधिक तरलता की वजह से बढ़ी माँग को नियंत्रित करती है ताकि महंगाई को कम किया जा सके। लेकिन वर्तमान की स्थितियाँ कुछ अलग हैं। भारत में महंगाई माँग जनित दबाव के कारण नहीं बल्कि कच्चे तेल और खाद्य तेलों आदि की क़ीमत में आई तेज़ी के कारण है। ये मुख्य रूप से आयात होते है। ये वस्तुएँ आवश्यक है इनकी माँग की क़ीमत लोच बेहद कम होती है यानी क़ीमत बढ़ने से खपत न के बराबर कम होती है।अतः प्रश्न उठता है, आरबीआई द्वारा बढ़ाई गई रेपोरेट किस प्रकार महंगाई को नियंत्रित करेगी? चूँकि महंगाई आंतरिक कम बल्कि आयातित ज़्यादा है। बढ़ी रेपोरेट महंगाई में कमी नहीं अपितु ईएमआई में वृद्धि से लोगों को महंगाई का नया झटका लगेगा।
भारत अपनी ज़रूरत का 80 प्रतिशत से अधिक कच्चा तेल विदेश से आयात करता है। तथा कच्चे तेल एवं स्वर्ण के बाद सबसे ज़्यादा विदेशी मुद्रा भंडार खाद्य तेल पर खर्च होता है। आयातित वस्तुओं की बढ़ी क़ीमतें भुगतान बिलों को बढ़ा रही है। और डॉलर के तुलना में रुपया कमजोर हो रहा। जिससे विदेशी निवेशकों का निवेश मूल्य भी कम हो रहा है। और विदेशी निवेश का पलायन भी शुरू होने लगा है। जिस कारण भारत का भुगतान संतुलन बिगड़ता दिख रहा है। स्वाभाविक है रोज़गार हतोत्साहित होगा।
भारत सरकार तमाम प्रयास कर रही है। इसी हफ़्ते इंडोनेशिया ने पॉम ऑयल से निर्यात पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया है। भारत खाद्य तेल को सस्ता करने के लिए सोयाबीन तथा सूरजमुखी तेल पर आयात शुल्क शून्य करने की घोषणा की है तथा पॉम ऑयल पर 5.5 प्रतिशत कृषि उपकर को शून्य कर सकती है। प्रयास सराहनीय होगा, लेकिन आयात पर खाद्य तेल की निर्भरता तार्किक नहीं। समस्या के स्थायी समाधान के लिए ज़रूरी है कि युद्ध स्तर पर हरित क्रांति की तरह पीली क्रांति को भी आगे बढ़ाया जाए। ताकि भारत खाद्य तेल में आत्मनिर्भर हो सके।
केंद्र सरकार द्वारा डीज़ल पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी घटाने के बाद अब राज्य सरकारों से अपेक्षा की जा रही है; वे भी वैट घटाकर इसे और सस्ता करें। लेकिन वैट कम करने में राज्यों में कोई ख़ास उत्साह नहीं दिखाई पड़ रहा। भारत के अंदर पेट्रोलिम पदार्थों की क़ीमत निर्धारण एवं नियंत्रण के लिए ज़रूरी है जीएसटी परिषद इन वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में लाने का प्रयास करे। साथ ही इसके दीर्घकालिक समाधान के लिए आवश्यक है कि खनिज तेल के स्थान पर ऊर्जा के नए विकल्प तलाश किए जाएँ। मंदी एवं महंगाई की मिश्रित समस्याएँ बहुआयामी है जिसके लिए ज़रूरी एकीकृत प्रयास।
मोहम्मद ज़ुबैर, कानपुर
MSW (Gold Medalist)
इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय,इलाहाबाद