धर्म को पवित्रता एवं राज्य को क़ानूनी शासन बनाए रखने के लिए हिंसा के प्रति किसी एक का भी मौन भविष्य की हिंसा का न्योता है।
विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि कोई भी धर्म हिंसा की इजाज़त नहीं देता है; और यह सच भी है। लेकिन जब हिंसा धर्म की आड़ से होती है तो प्रश्न उठता है कि हिंसा की मूल वजह क्या? जोकि अधिकांश मामलों में धुंधली बनी रहती। धार्मिक आड़ से हुई हिंसा दोहरा अपराध है। एक तो धार्मिक मूल्यों की नाफ़रमानी है और दूसरा राज्य के क़ानूनों का उल्लंघन। इसकी जड़ खोदने के लिए एकतरफ़ा प्रयास स्वयं में अधूरा है।
उल्लेखनीय है कि जब व्यक्ति दूसरे की जान का दुश्मन बनने लगे तो ज़रूर सोचना चाहिए कि किस ओर जा रहे हम? मानव भले ही सभ्य होने का दावा करे लेकिन सच तो ये है कि एक इंसान ही है जो दूसरे इंसान को मार सकता जबकि अन्य प्राणियों में ऐसा सामान्यतः नहीं दिखता। सभ्य कौन है, प्रश्न का विषय है? यह भी सच है कि कुछ लोगों की वजह से ही पूरी इंसानियत को शर्मसार होना पड़ता है। ये लोग कौन है? जो हज़ारों वर्षों की मानव सभ्यता को चंद लम्हों में कुचल देते हैं।
मान्यता है कि धर्म आदमी को इंसान बनाता है। फिर कोई धर्म के नाम पर हैवान कैसे हो जाता है? धर्म के विरोध में कॉर्ल मार्क्स जैसा महान चिंतक कहता है- धर्म अफ़ीम है। यहाँ धर्म का सम्बंध साधना पद्धति,कर्मकांड एवं अलौकिकताओं से है न कि धर्म के नैतिक पहलुओं से। जिसके नशे में व्यक्ति किसी भी हद तक चला जाता है। पश्चिम के महानचिंतक मैकलोस्की द्वारा किए अध्ययन के निष्कर्ष साबित करते है कि मंद बुद्धि व्यक्ति के कट्टर होने की सम्भावना ज़्यादा होती है। कम समझदार लोगों को नशे में डुबाकर इसका फ़ायदा धूमधाम से उठाया जाता है।
शायद ही दुनिया के किसी भी धर्म में ऐसा हो जो उसकी रक्षा की लिए किसी की ज़िंदगी छीनने की इजाज़त देता हो। महात्मा बुद्ध ने यहाँ तक कहा कि इंसान को मारकर धर्म की रक्षा करने के बजाय बेहतर होगा कि धर्म को मारकर इंसान की रक्षा की जाए। मानवता के विरुद्ध धर्म के नाम पर घटने वाली घटनाएँ इस सिद्धांत का शीर्षासन दिखाती है। स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए जिहादी एवं मंद बुद्धि के कट्टर लोग इस बात को भूल जाते है कि अहिंसा हिंसा से आगे की स्थिति है। हिंसा के लिए जो आत्मविश्वास चाहिए; अहिंसा के लिए उतनी शक्ति और उसके बाद हिंसा नहीं करने का हौसला। यानी अहिंसा कायरता नहीं है।
इसके स्थायी ख़ात्मे के लिए ऐसे कुकृत्य में सम्मिलित लोगों को क़ानून के माध्यम से सख़्त से सख़्त सजा दी जाए। तथा सम्बंधित धर्म व समाज ऐसे लोगों का खुलकर बहिष्कार करें। ताकि संदेश जाए कि ऐसे लोग किसी भी स्तर पर स्वीकार नहीं।
बेहतर होगा कि धर्म के नाम पर बड़े से बड़ा त्याग करने की भावना को किसी महान उद्देश्य से जोड़े जो उसे और राष्ट्र को महान बनाए। यदि इस त्याग को सांस्कृतिक उद्देश्यों (पर्यावरण संरक्षण, विश्व शांति, नवाचार आदि) से जोड़ सके तो निश्चित बेहद सकारात्मक परिणाम होंगे.