कविता
न जाने क्यों लगता हूँ….?
मिलता-जुलता हज़ारों से, पराया सा लगता हूँ। होती पूरी सारी ख्वाहिशें, मायूस सा लगता हूँ।

मिलता-जुलता हज़ारों से,
पराया सा लगता हूँ।
होती पूरी सारी ख्वाहिशें,
मायूस सा लगता हूँ।
देखूँ सपने जब अपनों के मिले सुकूँ,
खुले आँख जब दुनिया देखूँ अधूरा लगता हूँ॥
पेट भरा है खाने से,
भूखा सा लगता हूँ।
हैं ख़ुशियाँ बताऊँ किसे,
तनहा सा लगता हूँ।
गाँव तुम्हीं अच्छे हो, इन शहरों की भीड़ से
हैं नज़ारे लोगों के, अकेला लगता हूँ॥
रंग देता मोटे पन्ने,
जाहिल सा लगता हूँ।
इतना बोलूँ थक जाऊँ,
आवाक सा लगता हूँ।
मिटे अंधेरा, कर देता हूँ रोशन काली रातें,
जब बदले चाँद से सूरज अंधेरा लगता हूँ॥
झुक गए कंधे ज़िम्मेदारी से,
इकलौता सा लगता हूँ।
हुए इम्तिहान जब दुनियावी,
बेकस सा लगता हूँ।
अपनों को जब आते देखूँ दुनिया में, मिले सुकूँ,
जब दुनिया जाती देखूँ, गुमसुम लगता हूँ॥
ज़ुबैर