होली फाग : दौर बदला, धुन बदली, लेकिन नहीं बदली वो पुरानी परंपरा
कानपुर देहात। होली रंगों की फुहार और संगीत की मधुर धुनों पर सराबोर होकर थिरकने का त्योहार है। इस त्योहार में फाग गीत गाने की पुरानी परंपरा रही है। एक दौर से लेकर अब दूसरे दौर तक फाग गीतों की धुनें, अंदाज और इनमें झलकने वाली कहानियां बदली हैं, लेकिन ये फाग गीत आज भी होली की पहचान हैं।

- होली के रंग अपनो के संग फाग के साथ शुरू होती है होली
राहुल राजपूत।।अमन यात्रा ब्यूरो। कानपुर देहात। होली रंगों की फुहार और संगीत की मधुर धुनों पर सराबोर होकर थिरकने का त्योहार है। इस त्योहार में फाग गीत गाने की पुरानी परंपरा रही है। एक दौर से लेकर अब दूसरे दौर तक फाग गीतों की धुनें, अंदाज और इनमें झलकने वाली कहानियां बदली हैं, लेकिन ये फाग गीत आज भी होली की पहचान हैं।
जनपद कानपुर देहात के रसूलाबाद क्षेत्र के थानापुरवा गांव में शुक्रवार को फाग गाने का सिलसिला शुरू हुआ और इसी के साथ आबे आबे कान्हा तैं मोर अंगना दुआरी..फागुन के महीना में होली खेले के दारी…छत्तीसढ़िया मनखे हमन यहि हमर चिन्हारी…तोर संग होली खेले के आज हमर हे बारी…आबे आबे कान्हा.. कुछ इसी तरह के फाग गीतों के साथ शुरू होती है कानपुर देहात की होली। कानपुर देहात की पूरी संस्कृति लोकनृत्य और गीतों से सजी हुई है।
पहले के समय में बसंत पंचमी के त्योहार के दिन कानपुर देहात के गांवों-शहरों में लड़की ईंधन डालकर होलिका तैयार करने का काम शुरू किया जाता है। इसी दिन से गलियों-मोहल्लों में फाग गीतों के मधुर सुर गूंजने लगते थे। अब के दौर में फाग गीतों की यह गूंज थोड़ी सीमित हो गई है, लेकिन ये अब भी होली पर छेड़ी जाती है और हर किसी को अपनी धुन में मस्त कर देती है।
*सर्राने की परंपरा कम हो रही*
फाग गीत गाने वाले जानेमाने पुराने कलाकारों में से बुजुर्गो का मानना है कि समय के साथ फाग गीत गाने की परंपरा में भी बदलाव आया है। पहले के दौर में गीत गाने से पहले सर्राने की परंपरा थी। इस परंपरा के मुताबिक गीत की शुरूआत दोहा-शायरी से की जाती थी। ये दोहे कृष्ण की भक्ति से जुड़े हुआ करते थे। बंशी वाले मोहना, बंशी नेक बजाए…तेरो बंशी मन हरे, घर आंगन सुहाय… इस तरह के दोहे फाग गीतों की शुरूआत के लिए लय देते थे। अब सर्राने की परंपरा कम होती दिख रही है।
छोटे मोर, छोटे देवरा…बारी में बोईर फरे केवरा… जैसे गीत बरसों से गाए जा रहे हैं और आज भी इनका स्वरूप ऐसा ही है। बस पारंपरिक साजों की जगह नई धुनें जुड़ रही हैं।” बंशी मदन गोपाल की, बाजे अतिगंभीर… बृज बनीता सब मोहित होई, कालिंदी के तीर… और नैना सलोना रे राम के नैना… कौशल्या के श्री राम…राम के नैना.. इस तरह के फाग गीतों में इसी पारंपरिक भक्ति का भाव नजर आता है।”
*स्वरूप बदला*
फाग गीतों की पुरानी परंपरा आज भी चल रही है। बस दौर के साथ इसका स्वरूप बदल गया है। अब पारंपरिक वाद्य यंत्रों की जगह फिल्मी इंस्ट्रूमेंटल धुनें बज रही हैं और इन पर फाग गीत गाए जा रहे हैं। दौर बदला है, और दौर के साथ बहुत सी चीजें बदली हैं। इन्हीं बदलावों में से एक फाग गीतों का बदला अंदाज भी है। नई पीढ़ी के फाग गीत गायक इन्हीं गीतों पर अपनी प्रस्तुतियां दे रहे हैं।
*आज भी गाते हैं बचपन के वो फाग गीत*
फाग गीत के गायको ने अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताया कि उस दौर में इस त्योहार को बेहद पारंपरिक तरीके से मनाया जाता था और फाग गीत होली की परंपरा का हमेशा से ही हिस्सा रहे हैं। होली त्योहार के करीब एक पखवाड़े पहले हम अरंड पेड़ गाड़ने की रश्म के साथ ही फाग गीत गाना शुरू कर देते थे। गांव की एक गीत मंडली थी जो रोजाना शाम को फाग गीत गाते हुए पूरे गांव में भ्रमण करती थी। मैं इस गीत मंडली में खलार-मंजीरा बजाता था और गीतों को सीखने की कोशिश करता था। उस दौर में फाग गीतों में राम और कृष्ण की भक्ति के स्वर सुनाई देते थे।”
*अब की दौर की फ़ाग कुछ ही घण्टे तक सीमित रहती है।*
पहले की फ़ाग बड़ी शांति पूर्वक से चला करती थी। और कई दिनों तक चलती थी अब के दौर में फाग पुरानी रीतियों रिवाज के हिसाब से केवल नाम ही नाम रह गया है। अब की दौर की फाग कुछ ही घण्टो तक चलती है। इसके बाद फ़ाग के साथ साथ ग्रामीण भी नशे में झूमने लगते है जिससे फाग की स्थिति बिगड़ने लगती है। और फाग वही समाप्त कर दी जाती है।इस मौके पर ग्राम प्रधान संतोष राजपूत, रामनारायण, लालबाबू ,दीपेंद्र राजपूत, जयवीर ,रविंद्र ,कल्याण, जे एल मास्टर, जगरूप, मुन्नू, पुरुषोत्तम ,लाल बाबू रामसनेही सुधाकर, योगेंद्र ,राजपूत ,दशरथ विशाल सहित सैकड़ो ग्रामीण फाग में सम्मिलित रहे
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