
जो सबको खुश रखता है वह सचमुच कभी शिक्षक नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षक का असली धर्म तुष्टिकरण नहीं, सत्य पर अडिग रहना है। आज समाज, प्रशासन और अभिभावक सभी यह चाहते हैं कि शिक्षक उनकी उम्मीदों के मुताबिक सिर हिलाता रहे, मुस्कुराता रहे और बच्चों के सामने सिर्फ वही कहे जिससे सबको अच्छा लगे पर सच यह है कि जब शिक्षक सत्य से समझौता करता है तो शिक्षा का अस्तित्व ही खोखला हो जाता है।
जब शिक्षक प्रशासन को खुश करने के लिए झूठे आंकड़े भरता है, तो वह ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का अधिकार खो देता है। जब शिक्षक अभिभावकों को प्रसन्न करने के लिए बच्चों की गलतियों को छिपा देता है तो वह जिम्मेदारी का महत्व नहीं सिखा सकता। जब समाज की नाराजगी से बचने के लिए शिक्षक चुप हो जाता है तो वह विद्यार्थियों को अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं दे पाता। यह खुश रखने की संस्कृति शिक्षक को कठपुतली बना रही है और विद्यार्थियों को एक झूठा संसार दिखा रही है।
इतिहास गवाह है कि सच्चे शिक्षक वे ही बने जिन्होंने सबको खुश करने की बजाय सत्य का पक्ष लिया। चाहे उनके शब्द तत्काल स्वीकार न हुए हों, पर वही शाश्वत मूल्यों के वाहक बने। आज का शिक्षक यदि ईमानदार रहना चाहता है तो उसे यह स्वीकार करना होगा कि असहमति अपराध नहीं बल्कि शिक्षा का मूल है। मूल्य बहुमत से तय नहीं होते, वे सत्य से जन्म लेते हैं।
आज समय आ गया है कि शिक्षक खुश रखने की मानसिकता को ठुकराए और अपने विद्यार्थियों के सामने यह साहसिक आदर्श रखे कि शिक्षा का अर्थ दूसरों की मनमानी नहीं बल्कि आत्मा को जाग्रत करना है। सफलता यह नहीं कि सब आपसे प्रसन्न हों बल्कि यह है कि आपके विद्यार्थी सत्य के लिए खड़े होने का साहस पा सकें चाहे पूरी दुनिया असहमत क्यों न हो।
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