वर्तमान में जारी बहस- वृद्धि बनाम विकास। असहमति यह है कि वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए कौन सा मॉडल सटीक होगा वृद्धि से विकास की ओर या विकास से वृद्धि की ओर?
विश्व अभी निर्णायक चरण में है। वर्तमान में जो निर्णय लेंगे वे भविष्य की दशा एवं दिशा तय करेंगे। कोविड-19 महामारी के दो वर्षों के दौरान म्यूटेंट होते वेरिएंट्स ने पूरी व्यवस्था उलट-पुलट सी कर दी। वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था भी अनिश्चितता से त्रस्त है। लेकिन अच्छी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के अगले दो वर्षों तक दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने का अनुमान है। 2022-23 में यह नौ फीसदी और 2023-24 में 7.1 फीसदी दर से आगे बढ़ सकती है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह वृद्धि समावेशी विकास को आगे बढ़ाएगी? चूँकि स्थितियाँ असामान्य यहाँ तक हुईं कि अनेक सर्वस्वीकृत मान्यताएँ, नियम आदि अप्रासंगिक प्रतीत हो रहे है। जैसे कि फ़िलिप वक्र की मान्यता है कि महंगाई बढ़ने के साथ बेरोज़गारी कम होती है लेकिन वर्तमान में इसके उलट देखने को मिल रहा है; तीव्र गति से बढ़ती महंगाई के साथ बेरोज़गारी भी बढ़ती जा रही है। गहन चिंतन का विषय हो जाता है कि भविष्य के लिए प्रभावी रणनीति क्या हो? इसी कड़ी में वृद्धि बनाम विकास का विवाद चर्चा में है कि किस मॉडल को वरीयता दी जाए वृद्धि से विकास की ओर या विकास से वृद्धि की ओर?
आर्थिक संदर्भ में वृद्धि- आय अथवा उत्पादन से होने वाले परिवर्तन को दिखाती है और मात्रात्मक होती है। वहीं दूसरी और विकास की धारणा व्यापक है; ये गुणात्मक होता है इसमे वृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरणीय सकारात्मकता, शासन जैसे विषय समाहित है। उल्लेखनीय है कि आय से जीवन स्तर तो सुधारा जा सकता है लेकिन जीवन की गुणवत्ता सुधार में आय के अतिरिक्त अन्य बाते महत्वपूर्ण होती है। आसान शब्दों में- आय कितनी भी अधिक हो यदि व्यक्ति स्वस्थ नहीं है तो वह सब कुछ नहीं खा सकता है। इसी प्रकार शिक्षा- अवसर के विकल्पों को बढ़ाती है, सम्मान आदि का माध्यम बनती है जो कि सिर्फ़ आय से सम्भव नहीं है। उल्लेखनीय है गुणवत्ता युक्त जीवन और समावेशी विकास भी आय सृजन का बड़ा स्त्रोत बनता है। यूएनडीपी द्वारा किए गए अनुसंधान में यह पाया गया कि यदि कोई राष्ट्र साक्षरता को 20 प्रतिशत की दर से बढ़ा देता है तो उसकी वृद्धिदर 5 प्रतिशत से बढ़ने की सम्भावना होती है। इसके उलट- जीवन गुणवत्ता सुधार यानी विकास में आय भी अहम भूमिका रखती है। इस प्रकार स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि वृद्धि एवं विकास एक दूसरे के पूरक है ना कि प्रतिद्वंदी।
भले भारतीय अर्थव्यवस्था की गति तीव्र हो लेकिन प्रकाशित आँकड़े बताते है कि कैसे न्याय संगत विकास से समझौता किया जा रहा है? जैसे ख़राब होती वायु गुणवत्ता जिसके चलते 90 प्रतिशत लोग अस्वास्थ्यकर हवा में साँस लेने को विवश हैं। ऐसे ही असुरक्षित, अस्वास्थ्यकर, असम्वहनीय खाद्य प्रणालियाँ प्रति वर्ष लाखों अकाल मृत्यु का कारण बन रही हैं। इसी तरह सेंटर फ़ॉर मानिटरिंग इंडियन एकोनॉमी के आँकड़ो के अनुसार दिसम्बर 2021 में भारत की बेरोज़गारी दर 7.9 प्रतिशत के स्तर तक पहुँच गई थी। ध्यातव्य है कि अर्थव्यवस्था का वर्तमान प्रारूप आय, धन, शक्ति के असमान वितरण की ओर ले जा रहा है। यानी ग़रीबों एवं अमीरों में विषमता की खाई गहरी हुई है।
वर्तमान में अर्थशास्त्रियों के मध्य ग़रीबी का अध्ययन उतना अनिवार्य नही समझा जा रहा। अब वे विषमता के अध्ययन पर बल दे रहे हैं क्योंकि विषमता बहुआयामी ग़रीबी के बराबर है।कुछ समय पहले दुनिया के सौ अर्थशास्त्रियों ने विश्व आर्थिक विषमता की रेपोर्ट जारी की है जिसमें भारत में आर्थिक विषमता की चिंताजनक स्थिति दर्ज है। उल्लेखनीय है आज से 50 वर्ष पहले ग़रीबी हटाओ नारा दिया गया। निस्संदेह आर्थिक विकास हुआ है लेकिन कुछ सुधारों के साथ समस्या लगभग ज्यों कि त्यों है। कारण है हमने आर्थिक संवृद्धि की डोर तो पकड़ रखी है लेकिन आय अंतराल को ध्यान नहीं दिया।यानी संवृद्धि कुछ चुनिंदा वर्गों तक ही सीमित रही है।या यूँ कहें आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या बन रही है विषमता।अतः अब नारा होना चाहिए विषमता हटाओ देश बचाओ। इसके लिए आवश्यक है कि दूरगामी नीतियाँ आय वृद्धि के साथ न्यायसंगत विकास पर केंद्रित हो।