कोई एक मंदिर कोई एक मस्जिद हिंदुत्व या इस्लाम से बड़ी नहीं हो सकती। जारी ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा और इस तरह के अन्य कुछ मुद्दे अदालत-अदालत भटक रहे। जबकि ये सर्वविदित है कि सामुदायिक सम्बंध सिर्फ़ क़ानूनों से बनाया जाना मुश्किल है। ये आपसी लेनदेन से सम्भव होते है। विवाद हल करना और मेल-मोहब्बत बनाए रखना दोनो में फ़र्क है। धार्मिक सद्भाव, आपसी सौहार्द ही समाज में शांति का सबसे अच्छा विकल्प है। क़ानून को पकड़कर लड़ा जाना ठीक नहीं है। ज़रूरी है कि समाधान के रास्ते संस्कृति आदि में खोजे जाएँ। क्यों कहते है हमारी सभ्यता सबसे प्राचीनतम सभ्यताओं में से है? क्यों कहते हमारी संस्कृति प्राचीन है, सामासिक है? इस तरह के तमाम सवाल जिसके जवाबों के मूल में होता है कि हमारी संस्कृति ने लम्बा दौर देखा है, यानी परिष्करण काल लम्बा है। जो लम्बे समय में घटी छोटी एवं बड़ी घटनाओं से सुधरी और सँभली है। और इस बात को बोलते हुए हमारी गर्व की अनुभूति चरम पर होती है कि वर्तमान में हम ऐसी संस्कृति का हिस्सा हैं और उसके वाहक है। जो हमें आगे की पीढ़ी को सौंपनी है। उल्लेखनीय है कि हमारी भारतीय सांस्कृतिक इमारत ऐसे आधार पर टिकी है जिसके सिद्धांत सामासिक होने के साथ प्रगतिशील भी है जैसे कि सर्वधर्म समभाव अर्थात् सभी धर्म समान है वसुधैव कुटुम्बकम् जो हमारी पृथ्वी को एक परिवार के रूप में बांध देता है, सर्वे भवन्तु सुखिनः यानी सभी सुखी रहें। इस तरह के तमाम सिद्धांत सनातन धर्म के भी केंद्र में है और इस्लाम के केंद्र में भी। इन सिद्धांतों का उल्लंघन समाज का धार्मिक सिद्धांत से विचलन है।
इन सैद्धांतिक आधारों की माने तो बेहतर यही है कि हर धार्मिक स्थल में कुछ जगह या कमरा ऐसा भी छोड़ा जाए जो उस धर्म से अलग धर्म के लोगों के लिए हो। जहाँ अपने-अपने धार्मिक तरीक़े से पूजा-अर्चना या नमाज़ आदि पढ़ सके। शायद उससे समाज में बेहतर माहौल बने।और सभी धर्मों के सैद्धांतिक आधारों को व्यावहारिक रूप दिया जा सके। ये सम्भव तभी होगा जब धर्म पर स्वार्थी तत्वों का हस्तक्षेप सीमित हो जैसे धार्मिक नेता या राजनेता आदि। क्योंकि धार्मिक नेता वर्चस्व के लिए और राजनेता सत्ता के लिए धर्म को हथियार बनाते है।