
आज का समाज विचारधाराओं में इस कदर विभाजित है कि हर बात, हर विचार और हर व्यक्ति को किसी न किसी पक्ष में खड़ा कर दिया जाता है।
ऐसे समय में एक शिक्षक की भूमिका केवल ज्ञान का प्रसार करने तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि वह समाज के उस संवेदनशील सेतु का काम करता है जो विद्यार्थियों को मूल्यबोध, विवेक और संतुलन की दिशा में ले जाता है लेकिन जब खुद शिक्षक की विचारधारा को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगे या जब उससे यह अपेक्षा की जाए कि वह अपने निजी विचारों को या तो छुपा ले या किसी खास विचार के साथ कदम मिलाए तो यह केवल उसकी स्वतंत्रता पर हमला नहीं बल्कि शिक्षा की आत्मा पर प्रहार होता है।
एक शिक्षक की विचारधारा उसकी आंतरिक समझ, अनुभव और सामाजिक सरोकारों से उपजती है। यह जरूरी नहीं कि वह विचारधारा छात्रों पर थोपे लेकिन यह भी उचित नहीं कि वह अपने विचारों को जीने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए। शिक्षक का मूल्य इस बात में नहीं है कि वह किस विचारधारा से जुड़ा है बल्कि इस बात में है कि वह छात्रों को समाज के शाश्वत मूल्यों जैसे सत्य, करुणा, न्याय, सहिष्णुता और प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता से कैसे जोड़ता है।
यदि किसी शिक्षक की विचारधारा उसके शिक्षण में पूर्वाग्रह, कट्टरता या एक पक्षीय दृष्टिकोण लाती है तो वह छात्रों के विवेक का हनन करती है लेकिन यदि वही विचारधारा शिक्षक को अधिक मानवीय, संवेदनशील और विवेकशील बनाती है तो वह शिक्षण को सजीव बनाती है। समाज को यह समझना होगा कि शिक्षक कोई विचार शून्य रोबोट नहीं होता और न ही वह समाज की राजनीतिक लड़ाइयों का मोहरा है।
उसकी भूमिका उस संतुलनकारी शक्ति की है जो छात्रों को सोचने, समझने और आत्मनिर्भर निर्णय लेने योग्य बनाती है। अतः यह समय की मांग है कि शिक्षक को उसकी निजी विचारधारा के साथ जीने और शिक्षण करने की स्वतंत्रता दी जाए, जब तक वह छात्रों में स्वतंत्र सोच, प्रश्नवृत्ति और मूल्यों के प्रति निष्ठा विकसित कर रहा है क्योंकि विचारधारा से डरने के बजाय हमें उस विवेक को पोषित करना चाहिए जो विचारों का मूल्यांकन करना सिखाता है।
राजेश कटियार, कानपुर
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