सम्पादकीय

“दुर्गा आराधना पर्व : नवरात्रि”

माँ की महिमा, वात्सल्य एवं स्नेह तो शब्दों से परे है। माँ की सृजन शक्ति अतुलनीय है।

माँ की महिमा, वात्सल्य एवं स्नेह तो शब्दों से परे है। माँ की सृजन शक्ति अतुलनीय है। माँ का त्याग, समर्पण और प्रेम अद्वितीय है। ऐसी ही जगतमाता, जगदंबा, भगवती हमारे कल्याण के लिए नवरात्रि में शक्ति की आराधना के उत्सव पर्व में गज पर सवार होकर पधार रही है। शिव सदैव शक्ति के साथ अपनी पूर्णता से सुशोभित होते है। वे अर्धनारीश्वर स्वरूप में स्त्री सम्मान को प्रदर्शित करते है। प्रत्येक ईश्वरीय सत्ता में हमें नारी के प्रति समभाव दिखाई देता है, फिर चाहे वह राधे-कृष्ण हो, सीता-राम हो, उमा-शंकर हो या लक्ष्मी-नारायण स्वरूप हो। उच्चारण में भी नारी को ही प्रथम स्थान दिया गया है।

माँ की करुणा तो सदा भक्तो के लिए मंगलकारी होती है। माँ भी सदैव सृष्टि के संचालन को सुचारु रूप से चलाने के लिए ईश्वर के साथ लीलाओं में सहयोगी होती है। सती का रूप धारण कर माँ भक्तों के लिए 51 शक्ति पीठों के रूप में आशीर्वाद प्रदान करने के लिए विराजमान हो गई और प्रत्येक भक्त के लिए माँ ने भिन्न-भिन्न स्थानो को चयनित किया। माँ तो सर्वत्र विद्यमान है। माँ का न तो आदि है न अंत। दयामयी, कृपालु माँ तो अंत में भैरव को भी क्षमा कर अपने दर्शन में सहज रूप में सम्मिलित करती है। इतनी उदारता तो केवल माँ के स्वभाव में भी परिलक्षित हो सकती है। माँ की ममता को भला कौन भक्त अनुभव नहीं कर सकता, यदि वह सच्चे मन से स्मरण करें तो माँ सदैव सहायक होती है। दानवों के अत्याचार से भक्तों एवं संतो को बचाने के लिए माँ सिंह पर सवार होकर आती है और सृष्टि को पाप के भय से मुक्त करती है।

माता का एक सरल स्वभाव होता है कि वह बालक की गलतियों को नहीं, बल्कि सदैव उसके अच्छे गुणों एवं कर्मों को याद रखती है, इसलिए यदि हम ईश्वर से भक्ति-भाव के साथ जुड़ जाए तो यह समबंधन ईश्वर भी समान रूप से निर्वहन करते है। यदि हम माता के आगमन की प्रतीक्षा करते है तो माँ भी हमारे पुकारने की प्रतीक्षा में व्याकुल रहती है। जब बच्चा माँ के पास आकर बैठता है और अपने मनोभाव एवं दशा माँ को बताता है तब माँ ही तो होती है जो सुनने एवं समझने का प्रयास करती है। वह प्रत्येक स्थिति में बालक की उन्नति चाहती है। उसकी प्राथमिकता में सदैव बालक का हित निहित होता है। जगतमाता तो सर्वस्व कल्याणी एवं भक्त वत्सल स्वरूपा है। वे कैसे भक्तों की पुकार पर मनोवांछित एवं यथेष्ठ फल न प्रदान करें। श्रीराम कथा में स्वयं माता सीता ने माता पार्वती की स्तुति की थी और कहा था कि माँ आप तो शिव प्रिया एवं वरदान देने वाली हो। आप तो अपने भक्तों को चारों पुरुषार्थ सहजता से प्रदान कर देती है। जिस तरह बालक के हृदय में माँ का निवास होता है वह अपनी प्रत्येक इच्छा पूर्ति के लिए माँ से ही आस लगाता है, वैसे ही माँ के हृदय में भी सदैव बालक की चिंता विद्यमान होती है।

वर्तमान समय में हम प्रत्येक स्थिति में परिवर्तन देख रहे है और हम यह समझ रहे है कि यह सृष्टि ईश्वरीय सत्ता के द्वारा संचालित होती है। हमारी शक्ति ईश्वर की शक्ति के आगे नगण्य है। हमारे जीवन में शामिल यह सभी उत्सव एवं पर्व हमें ईश्वरीय सत्ता से जुड़ने एवं उनके प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ होने के लिए प्रेरित करते है। यदि हम इन उत्सवों में ईश्वर के प्रेम, अनुराग एवं भक्ति में डूबते है तो हम जैसे-तैसे भव सागर से पार तो निश्चित ही हो जाएंगे। ईश्वर का ध्यान, पूजन एवं अर्चन हमारी मानसिक एकाग्रता को भी बढ़ाता है एवं हमें आनंद एवं शांति प्रदान करता है। दुर्गा आराधना पर्व में दुर्गा सप्तशती के पाठ द्वारा माता की आराधना श्रेष्ठ होती है। कन्या पूजन हमें बेटियों को भी अपनत्व से अपनाने एवं प्रेम प्रदान करने की ओर अग्रसर करता है, क्योंकि आँगन की सुंदरता बेटियों से ही सुशोभित होती है। माता की आराधना को उत्सव रूप प्रदान करने के लिए सर्वत्र गरबा नृत्य का भी आयोजन किया जाता है। यह उत्सव एवं आराधना पर्व हमें नारी के प्रति कृतज्ञ एवं सम्मानभाव रखने की भी प्रेरणा देता है। तो आइये इस नवरात्रि पूर्ण निष्ठा भाव से माता के विभिन्न स्वरूपों का ध्यान करें एवं जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करें।

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डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)

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Author: aman yatra


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